________________
आवश्यक नियुक्ति
१९३.
१९४.
१९४/१.
१९५.
इच्चेवमादि सव्वं, जिणाण पढमाणुयोगतो णेयं। ठाणासुण्णत्थं पुण, भणितं पगतं अतो वोच्छं । उसभजिणसमुट्ठाणं, उट्ठाणं जं ततो मरीइस्स। सामाइयस्स एसो, जं पुव्वं निग्गमोऽहिगतो ॥ संबोधण निक्खमणं, णमिविनमी' विजधरण वेतड्ढे। उत्तरदाहिणसेढी, सट्ठी पण्णासनगराई । चेत्तबहुलट्ठमीए, चउहि सहस्सेहि सो उ अवरहे। सीया सुदंसणाए, सिद्धत्थवणम्मि छट्टेणं ॥ चउरो साहस्सीओ, लोयं काऊण अप्पणा चेव । जं एस जहा काही', तं तध अम्हे वि काहामो ॥ उसभो वरवसभगती१, घेत्तूणमभिग्गहं१२ परमघोरं३ । वोसट्ठचत्तदेहो, विहरति गामाणुगामं तु" ॥ नमिविनमीणं५ जायण, नागिंदो विजदाण'६ वेयड्डे। उत्तरदाहिणसेढी, सट्ठी पण्णासनगराई ॥ 'भगवं अदीणमणसो'१८, संवच्छरमणसिओ विहरमाणो। कण्णाहि निमंतिज्जति९, वत्थाभरणासणेहिं च ॥
१९६.
१९७.
१९८.
१९९.
|
१. स्वो २५०/१६८८, इस गाथा का चूर्णि में मात्र संक्षिप्त भावार्थ मिलता __ को १७०४) गाथा मूल भाष्य के रूप में हा, दी (मूभा. ३१) है, प्रतीक एवं व्याख्या नहीं है।
टीकाओं में मिलती है। टीकाकार हरिभद्र ने इसके लिए चाह मूल२. समुत्थाणं (म, रा, स्वो)।
भाष्यकार: का उल्लेख किया है। हस्तप्रतियों में भी यह मूभा. ३. उत्थाणं (म, ब, स्वो)।
उल्लेख के साथ मिलती है। मुद्रित मटी (गा. ३३९) में यह ४. स्वो २५१/१६८९, चूर्णि में यह गाथा अव्याख्यात है।
निगा के क्रम में व्याख्यात है पर टीकाकार ने इसके लिए निगा ५. नागिंदो (को)।
का उल्लेख नहीं किया है। यह संख्या संपादक के द्वारा लगाई ६. सर्टि (स्वो)।
गयी है। आगे गा. ३२ से यह संख्या भाष्य गाथा के क्रम में ७. स्वो २५२/१६९०, यह गाथा दोनों भाष्यों में इसी क्रम में मिलती है। जुड़ गयी हैं। चूर्णि में यह भाष्य गाथा नमिविनमीणं......
चूर्णि तथा हा, म, दी में उसभो वर.....गाथा १९७ के बाद मिलती (गा. १९८) के बाद उल्लिखित है। है (हा, ३१७, म ३४०)। विषयवस्तु की क्रमबद्धता की दृष्टि १५. निमि' (स), नमीण (म)।
से चूर्णि एवं टीका का क्रम संगत प्रतीत होता है। (द्र. टिप्पण १९८) १६. जिणदाण (अ)। ८. स्वो २५३/१६९१, चूर्णि में १९५, १९६ दोनों गाथाएं अव्याख्यात हैं। १७. चाह नियुक्तिकारः (हाटी), तु. स्वो २५२/१६९०, यह गाथा ९. काहिति (ला, स्वो)।।
कुछ अंतर के साथ दोनों भाष्यों में उसभजिण (गा. १९४) १०. काहिमो (स्वो २५४/१६९२) ।
के बाद मिलती है। किन्तु चूर्णि एवं टीकाओं में इसी क्रम ११. वसभसमगती (स्वो, ला), वसभाई (स)।
व्याख्यात है। (द्र. टिप्पण १९४/१) १२. घेत्तूणं अभि' (म), घेत्तूण अभि (स्वो)।
१८. भयवमदी (म), भगवं पदीण' (अ, रा, ला, चू, को)। १३. गोरं (स्वो)।
१९. "तिज्जो (अ)। १४. स्वो २५५/१६९३, इस गाथा के बाद ण वि ताव....(स्वो १६९४, २०. स्वो २५६/१६९५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org