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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाया ३४
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क्रमपूर्वक चार जाति के बंध का और बंधावलिका के चरम समय में उदीरणा का जो कारण एकेन्द्रियजाति की जघन्यस्थिति की उदीरणा के प्रसंग में कहा है, वही यहाँ भो जानना चाहिये ।
इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जातिनाम की जघन्यस्थिति उदीरणा भी कहना चाहिये । तथा
दुभगाइनीय तिरिदुगअसारसंघयण नोकसायाणं । सन्निमेवं इगागयगे ॥ ३४ ॥
मणुपुव्वऽपज्जतइयस्स
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शब्दार्थ - दुभगाइ – दुर्भग आदि, नीय- नीवगोत्र, तिरिदुग - तिर्यचद्विक, असारसंघयण -- असार संहनन - प्रथम को छोड़कर शेष पांच संहनन, नोकसायाणं - नोकषायों की, मणुपुव्व— मनुष्यानुपूर्वी अपज्जतइयस्सअपर्याप्तनाम, तीसरे वेदनीय कर्म की, सन्निमेवं संज्ञी इसी प्रकार, गाय - एकेन्द्रिय में से आये हुए ।
गाथार्थ - एकेन्द्रिय में से आये संज्ञी में दुर्भगादि, नीचगोत्र, तिर्यंचद्विक, असार संहनन, नोकषाय, मनुष्यानुपूर्वी, अपर्याप्त, तीसरे वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति उदीरणा होती है ।
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विशेषार्थ - दुभंग आदि तीन- दुभंग, अनादेय और अयशः कीर्ति, नीचगोत्र, तियंचद्विक - तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी असारसंहनन - प्रथम के सिवाय शेष पांच संहनन, नोकषाय 1 -- हास्य, रति, अरति, शोक, ये चार तथा मनुष्यानुपूर्वी, अपर्याप्तनाम और तीसरा साताअसाता रूप वेदनीय कर्म, कुल मिलाकर उन्नीस प्रकृतियों की जघन्य
१ वेदनिक के लिये आगे कहा जायेगा और भव एवं जुगुप्सा के लिये पूर्व में कहा जा चुका है । अतएव यहाँ नोकषाय शब्द से हत्यादि उक्त चार प्रकृतियों का ग्रहण किया है ।
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