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पंचसंग्रह : ८
रणा होती है और वैसा हो तो उदीरणा में स्थिति बढ़ जाती है । इसलिए बंधावलिका के चरम समय में जघन्य उदीरणा होती है, यह कहा है।
जिस तरह से एकेन्द्रियजाति की जघन्य स्थिति-उदीरणा का निर्देश किया है, उसी प्रकार से स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नामकर्म की भी जघन्य स्थिति-उदीरणा जानना चाहिये। उन तीनों की प्रतिपक्ष प्रकृति अनुक्रम से त्रस, बादर और प्रत्येक नाम हैं जैसे कि स्थावरनाम की अति जघन्यस्थिति की सत्ता वाला एकेन्द्रिय जितनी अधिक बार त्रसनामकर्म बांध सके, उतनी अधिक बार बांधे, तत्पश्चात् स्थावरनामकर्म बांधना प्रारम्भ करे तो उसको बंधावलिका के चरम समय में वह एकेन्द्रिय स्थावरनामकर्म की जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है। इसी प्रकार सूक्ष्म आदि के लिये भी समझ लेना चाहिये । तथा
एकेन्द्रिय के भव में से आगत द्वीन्द्रियादि जीव अपनी-अपनी जाति को इसी प्रकार जघन्य स्थिति की उदोरणा करते हैं । जिसका तात्पर्य इस प्रकार है - कोई जघन्य स्थिति को सत्ता वाला एकेन्द्रिय उस भव में से निकलकर द्वीन्द्रिय में उत्पन्न हो, वहाँ पूर्व में बांधी हुई द्वीन्द्रियजाति का अनुभव करना प्रारम्भ करे । अनुभव के-उदय के प्रथम समय से लेकर दीर्घकाल पर्यन्त एकेन्द्रियजाति का बंध करे और उसके बाद त्रीन्द्रियजाति दीर्घकालपर्यन्त बांधे । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति को क्रमपूर्वक बांधे । किन्तु मात्र जिस जाति की जघन्य स्थिति की उदोरणा कहना हो उस जाति को अंत में बांधे इतना विशेष है। इस प्रकार चार बड़े अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होते हैं, उतने काल पर्यन्त द्वीन्द्रिय जाति को अनुभव द्वारा कम करे, उसके बाद द्वीन्द्रिय जाति को बांधना प्रारम्भ करे। उसकी वंधावलिका के चरम समय में एकेन्द्रिय भव में से जितनी जघन्य स्थिति की सत्ता लेकर आया था, उसकी अपेक्षा चार अन्तर्मुहूर्त न्यून द्वीन्द्रियजाति की जघन्य स्थिति की उदोरणा करता है।
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