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पंचसंग्रह : ८
गाथार्थ - यहाँ स्वामित्व और अद्धाच्छेद बहुलता से प्रायः स्थितिसंक्रम के तुल्य हैं किन्तु जिसके विषय में जो विशेष है उसके सम्बन्ध में कहूँगा ।
विशेषार्थ - यहाँ -स्थिति- उदीरणा के विषय में उत्कृष्ट या जघन्य स्थिति की उदीरणा का स्वामी कौन है और कितनी स्थिति की उदीरणा होतो है तथा कितनी की नहीं होती है, यह अधिकांशत स्थितिसंक्रम के तुल्य - समान है । अर्थात् जैसे पूर्व में संक्रमकरण में स्थिति - संक्रम के विषय में जितनी उत्कृष्ट या जघन्य स्थिति का संक्रम होता है और जितनी स्थिति का संक्रम नहीं होता, उस प्रकार का अद्धाच्छंद कहा है, उसी प्रकार यहाँ -स्थिति- उदीरणा के अधिकार में भी बहुलता से जानना चाहिये | मात्र जिन प्रकृतियों के सम्बन्ध में जो विशेष है, उसको यथास्थान कहा जायेगा ।
इस स्पष्टीकरण को ध्यान में रखकर अब स्थिति - उदीरणास्वामित्व की प्ररूपणा करते हैं ।
उत्कृष्ट जघन्य स्थिति उदीरणास्वामित्व
अंतो मुहुत्तहीणा सम्मे मिस्संमि दोहि मिच्छस्स । आवलिदुगेण होणा बंधुक्कोसाण परमठिई ॥ २६ ॥
३. ब्दार्थ - अंतोमुहुत्त होणा - अन्तर्मुहूर्त न्यून, सम्मे मिस्तंमि – सम्यक्त्व, मिश्र की, दोहि दो, मिच्छस्स - मिथ्यात्व की, आवलिदुगे – आवलिकाद्विक से, होणा-यून, बंधुक्कोसाण बंधोत्कृष्टा प्रकृतियों की, परमठिई उत्कृष्ट स्थिति ।
गाथार्थ - सम्यक्त्व की उदीरणायोग्य स्थिति मिथ्यात्व की अंतर्मुहूर्तहीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है और मिश्र की दो अन्तमुहूर्त से होन है तथा बवोत्कृष्टा प्रकृतियों की आवलिकाद्विकहीन उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य है ।
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विशेषार्थ - मिथ्यात्व की अन्तर्मुहूर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति सम्यक्त्वमोहनीय में संक्रमित होती है । संक्रमित
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