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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६
हुई उदयावलिका से ऊपर की उस स्थिति को उसके उदय वाला क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि उत्कीर्ण करता है, जिससे कुल अन्तर्मुहूर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम सम्यक्त्व की स्थिति उदीरणायोग्य होती है तथा मिथ्यात्व की अन्तर्मुहूर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति मिश्रमोहनीय में संक्रमित होती है। वहाँ (चतुर्थ गुणस्थान में) अन्तर्मुहूर्त रहकर तीसरे गुणस्थान में जाये तो वह मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव उदयावलिका से ऊपर की दो अन्तर्मुहूर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति को उत्कीर्ण करता है । अर्थात् दो अन्तर्मुहूर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति उदीरणायोग्य होती है ।
उक्त कथन का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है- कोई मिथ्यादृष्टि तीव्र संक्लेश परिणाम के योग से मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति बांधे और बांधकर अन्तमुहूर्त काल पर्यन्त मिथ्यात्व में रहकर ( क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त अवश्य मिथ्यात्व में ही रहता है) सम्यक्त्व प्राप्त करे तो वह सम्यक्त्वी अन्तर्मुहूर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण मिथ्यात्व की समस्त स्थिति को सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय में संक्रमित करता है ।" अन्तर्मुहूर्त न्यून सम्यक्त्वमोहनीय की वह उत्कृष्ट स्थिति संक्रमावलिका व्यतीत होने के बाद उदीरणायोग्य होती है । संक्रमावलिका व्यतीत होने पर भी वह स्थिति अन्तमुहूर्त न्यून ही कहलाती है |2 इसीलिये सम्यक्त्वमोहनीय की अन्तमुहूर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति उदीरणायोग्य कही है । तथा
१ करण किये बिना जो जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसकी अपेक्षा यह कथन संभव है । किन्तु जो यथाप्रवृत्त आदि करण करके चढ़ता है, उसे तो अन्तःकोडाकोडी सागरोपम की ही सत्ता रहती है ।
२
मात्र संक्रमावलिका अन्तर्मुहूर्त में मिल जाने से वह अन्तर्मुहूर्त बड़ा हो जाता है ।
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