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उदीरणाकरण - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २८
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होने से वह सादि-सांत है । उसके अतिरिक्त अन्य सब अजघन्य स्थितिउदीरणा है और वह अनादिकाल से प्रवर्तित है, अतः अनादि, अभव्य के ध्रुव अनन्त और भव्य के अध्रुव-सांत है ।
उपर्युक्त मिथ्यात्व आदि अड़तालीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य रूप शेष विकल्प दुविहा- सादि और अध्रुव इस तरह दो प्रकार के हैं । उन्हें इस तरह जानना चाहिये - उपर्युक्त समस्त प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान मिथ्यादृष्टि के कितनेक काल ( अन्तर्मुहूर्त) पर्यन्त होती है । तत्पश्चात् समयान्तर कालान्तर में ( अन्तर्मुहूर्त के बाद) अनुत्कृष्ट, इस प्रकार एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद पहली इस तरह के क्रम से उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट उदीरणा प्रवर्तित होने से सादि, अध्रुव-सांत है और अजघन्य उदीरणा के कथन प्रसंग में यह पहले बताया जा चुका है कि जघन्य स्थिति - उदीरणा सादि, अध्रुव-सांत इस तरह दो प्रकार की है ।
उक्त प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष अध्र वोदया एक सौ दस प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये सभी विकल्प उनके अध्रुवोदया होने से ही सादि-अध्रुव, इस तरह दो प्रकार के हैं ।
इस प्रकार से स्थिति - उदीरणा की साद्यादि प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब स्वामित्व और अद्धाछेद प्ररूपणाओं का प्रतिपादन प्रारम्भ करने से पूर्व सम्बन्धित सामान्य नियम का निरूपण करते हैं
सामित्तद्धाछेया इह ठिइसकमेण तुल्लाओ ।
बाहुल्लेण विसेसं जं जाणं ताण तं वोच्छं ॥२८॥
शब्दार्थ - सामित्तद्वाछेया -- स्वामित्व और अद्धाच्छेद, इह - यहाँ -स्थितिउदीरणा में, ठिइसकमेण — स्थितिसंक्रम के, तुल्लाओ— तुल्य, बाहुल्लेण - बहुलता से, विसेसं - विशेष, जं- जो, जाणं - जिसके विषय में, ताणउसके सम्बन्ध में, तं - उसको, वोच्छं कहूँगा ।
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