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उदीरणाकरण- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७
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गाथार्थ - त्रसत्रिक, स्थावरत्रिक, आयुचतुष्क, गति, जाति, दृष्टि, वेद और आनुपूर्वी इन समस्त प्रकृतियों की उदीरणा के स्वामी उस-उस नाम वाले जोव हैं । किन्तु आनुपूर्वी की उदीरणा के स्वामी विग्रहगति में वर्तमान जीव ही हैं ।
विशेषार्थ - ' तसथावराइतिगतिग' अर्थात् त्रसादित्रिक - त्रस, बादर और पर्याप्त तथा स्थावरादित्रिक - स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्त, आयुचतुष्क, चार गति, पांच जाति, दृष्टि - मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय, नपुंसक आदि तीन वेद, इन सभी प्रकृतियों की उदीरणा के स्वामी उस उस नाम वाले यानि उसउस प्रकृति के उदय वाले जीव उदीरक हैं। जैसे कि
त्रसनाम की उदीरणा के स्वामी त्रसनाम के उदय वाले त्रस जीव हैं, बादरनामकर्म के उदीरक बादरनाम के उदय वाले जीव हैं, सूक्ष्मनाम की उदीरणा के स्वामी सूक्ष्मनाम के उदय वाले जीव हैं । इस प्रकार उपर्युक्त उस-उस प्रकृति के उदय वाले जीव उस-उस प्रकृति की उदीरणा के स्वामी हैं । चाहे फिर वे जीव विग्रहगति में स्थित हों या शरीरस्थ हों ।
आनुपूर्वीनामकर्म की उदीरणा के स्वामी भी आनुपूर्वी के उदय वाले जीव हैं । जैसे कि नरकानुपूर्वी को उदीरणा का स्वामी नारक है । इसी प्रकार शेष आनुपूर्वियों के लिये भो समझना चाहिये । किन्तु इतना विशेष है कि मात्र विग्रहगति में वर्तमान जीव ही आनुपूर्वी के उदीरक हैं। क्योंकि विग्रहगति में हा आनुपूर्वी का उदय होता है ।
तथा -
पमोत्तणं । उवंगं से ॥७॥
शब्दार्थ - आहारी - आहारकशरीरी, उत्तरतगु शरीरी, नरतिरितब्वेयए उसके वेदक मनुष्य और तिर्यंच, पमोत्तू गं - छोड़कर,
उत्तर शरीरी - वैक्रिय
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आहारी उत्तरतणु नरतिरितव्वेयए उद्दीरंती उरलं ते चेव तसा
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