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पंचसंग्रह :
दर्शनावरणचतुष्क, ज्ञानावरणपंचक और अंतरायपंचक इन चौदह कर्मप्रकृतियों की उदीरणा के स्वामी चरमावलिका में वर्तमान क्षीणमोहगुणस्थानस्थ जीवों को छोड़कर शेष समस्त छद्मस्थ जीव हैं ।
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तथा
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तसथावराइतिगतिग आउ गईजातिदिट्ठिवेयाणं ।
तन्नामाणूपुव्वीण
किंतु ते
अन्तरगईए ||६||
शब्दार्थ - तस्थावराइतिगतिग- त्रसत्रिक, चतुष्क, गईजातिदिठिवेयाणं गति, जाति, दृष्टि पुथ्वीण-उस-उस नाम वाले तथा आनुपूर्वी के, अंतरगई ए - विग्रहगति में वर्तमान ।
स्थावरत्रिक, आउ - आयुऔर वेद के तन्नामाणूकिन्तु किन्तु, ते वे,
में साधारण, प्रत्येक और उपघात की उदीरणा शरीरस्थ को और पराघात की उदीरणा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को कही है | शरीरस्थ यानि उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न हुआ और शरीरपर्याप्त यानि जिसने शरीरपर्याप्ति पूर्ण कर ली हो, यह शरीरस्थ और शरीरपर्याप्त इन दोनों में भेद है । जहाँजहाँ उदय या उदीरणा के स्थान बताये हैं, वहाँ यह भेद स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है । इसके सिवाय कर्मप्रकृति उदीरणा अधिकार गाथा ६ के 'पत्त गियस्स उ तगुत्था' पद की चूर्णि इस प्रकार है
"पत्त यसरीरणामाए साहारणसरीरणामाए य सव्वे सरीरोदए वट्टमाणा उदीरगा" अर्थात् शरीरनामकर्म के उदय में वर्तमान प्रत्येक, साधारण की उदीरणा के स्वामी हैं । पराघात के लिये गाथा १२ में 'पराधायस्स उ देहेण पज्जत्ता' पाठ है । 'देहेण पज्जत्ता' यानि शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त । चूर्णि में भी इसी प्रकार है, यहाँ 'तणुत्था' और 'देहेण पज्जत्ता' का स्पष्ट भेद ज्ञात होता है । अतः शरीरस्थ अर्थात् उत्पत्तिस्थल में उत्पन्न हुआ अर्थ ठीक लगता है । फिर शरीरस्थ का शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त अर्थ कैसे किया, यह स्पष्ट नहीं होता है । विज्ञजन स्पष्ट करने की कृपा करें |
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