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________________ उदी णाकरण-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ __इस प्रकार से मूलकर्म प्रकृति सम्बन्धी उदीरणास्वामित्व जानना चाहिये । अब उत्तर प्रकृतियों के उदीरणास्वामित्व का निर्देश करते उत्तर प्रकृतियों का उदीरणास्वामित्व उवपरघायं साहारण च इयरं तणुइ पज्जत्ता । चउदंसणनाणावरणंतरायाणं ॥५॥ शब्दार्थ-उवपरघायं----उपघात, पराघात, साहारणं-साधारण, चऔर, इयरं-इतर (प्रत्येक नाम), तणुइ पज्जत्ता-शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त, छउमत्था -छद्मस्थ जीव, चउदंसण--दर्शनावरण चतुष्क, नाणावरणंतरायाणं-- ज्ञानावरणपंचक और अंतरायपंचक । गाथार्थ-उपघात, पराघात, साधारण और इतर-प्रत्येक नाम के उदीरक शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त जोव हैं। दर्शनावरणचतुष्क, ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों के समस्त छद्मस्थ जीव उदीरक हैं। विशेषार्थ-गाथा में नामकर्म की चार और घातिकर्मों की चौदह प्रकृतियों के उदीरणास्वामियों का निर्देश किया है। जिसका विस्तृत आशय इस प्रकार है उपघात, पराघात, साधारण और इतर-प्रत्येक इन चार प्रकृतियों की उदीरणा के स्वामी शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त समस्त जीव हैं। इतना विशेष है कि साधारणनामकर्म के उदीरक साधारणशरीरी जीव जानना चाहिये। १ साधारण, प्रत्येक और उपघात नामकर्म की उदीरणा यहाँ शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त के बताई है, परन्तु कर्मप्रकृति में प्रकृतिस्थानउदीरणा के अधिकार में और इसी ग्रन्थ के 'सप्ततिकासंग्रह' में नामकर्म के उदयाधिकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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