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पंचसंग्रह
इस प्रकार से उत्तर प्रकृतियों सम्बन्धी साद्यादि प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब गाथोक्त निर्देशानुसार कौन जीव किन और उत्तर कर्म प्रकृतियों का उदीरक होता है, इसका कथन करते हैं । अर्थात् उदीरणास्वामित्व का निर्देश करते हैं । पहले मूल प्रकृतियों सम्बन्धी उदीरकों को बतलाते हैं ।
मूल
मूलप्रकृति सम्बन्धी उदीरणास्वामित्व
घाईणं छउमत्था उदीरगा रागिणो उ मोहस्स । नामगोयाणं ||४|
वेयाऊण पमत्ता सजोगिणो
शब्दार्थ -घाईनं घाति प्रकृतियों के, छउमत्था -- छद्मस्थ, उदीरगाउदीरक, रागिणो-रागी, - और, मोहस्स - मोहनीयकर्म के, वैयाऊणवेदनीय और आयु के, पमत्ता - प्रमत्तसंयत, सजोगिणो-सयोगि, नामगोयाणं-- नाम और गोत्र कर्म के ।
उ
गाथार्थ - घातिकर्मों के छद्मस्थ, मोहनीय के रागी, वेदनीय और आयु के प्रमत्तगुणस्थान तक के और नाम, गोत्र के सयोगिकेवलीगुणस्थान तक के जीव उदीरक हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में मूल कर्म प्रकृतियों के उदीरणा - स्वामित्व का निर्देश किया है ।
घाति कर्मप्रकृतियों के अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीन प्रकृतियों के चरमावलिकाहीन क्षीणमोहगुणस्थान तक में वर्तमान समस्त छद्मस्थ जीव और इन से शेष रही घाति प्रकृति मोहनीय कर्म के चरमावलिकान्यून सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान तक के रागी जीव उदीरक हैं । वेदनीय एवं आयु कर्म के छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक के समस्त जीव उदीरक हैं । छठे गुणस्थान तक में भी आयु की जब अंतिम आवलिका शेष रहे तब उसमें उदीरणा नहीं होती है, उसके अतिरिक्त शेषकाल में होती है तथा नाम और गोत्र कर्म के सयोगिकेवलीगुणस्थान तक के समस्त जीव उदीरक हैं ।
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