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पंचसंग्रह : ८
उद्दीरंती- उदीरणा करते हैं, उरलं- औदारिक शरीर की, ते चेव - वही, तसा- - त्रस, उवंगं - अंगोपांग की, से उसके I
गाथार्थ - आहारक शरीरी तथा वैक्रिय शरीरी देव, नारक तथा उनके वेदक मनुष्य एवं तिर्यंचों को छोड़कर शेष समस्त जीव औदारिक शरीर की उदीरणा करते हैं । वे ही सब परन्तु स जीव उसके अंगोपांगनाम की उदीरणा के स्वामी हैं ।
विशेषार्थ - आहारक शरीर की जिन्होंने विकुर्वणा की है ऐसे आहारक शरीरी, वैक्रिय शरीरी देव तथा नारक तथा वैक्रिय शरीर की जिन्होंने विकुर्वणा की है, ऐसे वैक्रिय शरीरी मनुष्य और तिर्यंचों को छोड़कर शेष समस्त एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव औदारिक शरीरनामकर्म, औदारिकबन्धनचतुष्टय एवं औदारिकसंघात इन छह प्रकृतियों की उदीरणा करते हैं तथा जो जीव औदारिक शरीरनाम की उदीरणा के स्वामी हैं. वे ही सब औदारिक अंगोपांगनाम की उदीरणा के भी स्वामी हैं । परन्तु यहाँ स जीवों-द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों को ही उदीरक जानना चाहिये । क्योंकि स्थावरों में अंगोपांगनामकर्म का उदय नहीं होता है । तथा
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आहारी सुरनारग सण्णी इयरेऽनिलो उ पज्जत्तो । लद्धीए बायरो दीरगो उ वे उव्वितस्स || ८ || तदुवंगसवि तेच्चिय पवणं मोत्तण केई नर तिरिया । आहारसत्तगस्स वि कुणइ पमत्तो विउव्वन्तो ॥ ६ ॥
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१ वैक्रिय और आहारक शरीर की विकुर्वणा करने वाले मनुष्य तिर्यंत्र को जब तक वह वैक्रिय और आहारक शरीर रहता है तब तक वैक्रिय और आहारक शरीर की उदय- य - उदीरणा होती हैं, औदारिक शरीर की उदयउदीरणा नहीं होती । यद्यपि उस समय औदारिक शरीर है, परन्तु वह
निश्चेष्ट है ।
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