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________________ प्राक्कथन यह पंचसंग्रह का उदीरणाकरण अधिकार है। उदय की भाँति उदीरणा भी कर्मफल की व्यक्तता का नाम है । अर्थात् विपाक - वेदन की दृष्टि से तो उदय और उदीरणा में समानता है, लेकिन उदीरणा की इतनी विशेषता है कि आत्मिक परिणामों के द्वारा कर्म को अपने समय से पूर्व ही उदयाभिमुख कर दिया जाता है अथवा अपकर्षण द्वारा अपने विपाक काल से पूर्व ही उदय में ले आया जाता है । इसी कारण उदीरणा का विचार पृथक् से किया जाता है । उदारणा में आत्म-परिणामों की मुख्यता है । इसी आशय को स्पष्ट करने के लिये करण शब्द को उदीरणा के साथ संबद्ध किया है । आत्मपरिणामों की विशेष क्रिया के द्वारा उदयमुखेन अनुभव कर लेने के बाद कर्मस्कन्ध कर्मरूपता को छोड़कर अन्य पुद्गल रूप में परिणमन कर जाता है । जब कि उदय में अपनी स्वाभाविक एक प्रक्रिया के अनुसार कर्मस्कन्ध स्थितिक्षय को प्राप्त होकर अपना -- अपना फल देते हैं । इसके साथ ही उदय और उदीरणा में एक अन्तर और है कि उदय उदयावलिकागत कर्मस्कन्धों का होता है तथा उदीरणा सत्तागत कर्मस्कन्धों की होती है । उदयावलिकागत कर्म स्कन्धों में उदीरणाकरण के द्वारा किसी प्रकार का परिवर्तन किया जाना संभव नहीं है । उदीरणा सम्बन्धी विवेचन बंधविधि प्ररूपणा अधिकार में भी किया है और जो वर्णन वहाँ नहीं किया जा सका, उसका यहाँ कथन किया है । इसलिये यदि उदीरणा सम्बन्धी क्रिया का पूर्णरूपेण परिज्ञान करना हो तो बंधविधि अधिकार के साथ इस उदीरणाकरण अधिकार को जोड़कर अध्ययन करना चाहिये । प्रस्तुत अधिकार में उदीरणा सम्बन्धी निम्नलिखित बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001905
Book TitlePanchsangraha Part 08
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages230
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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