________________
( १६ )
अर्थबोध की सुगमता के लिए ग्रन्थ के सम्पादन में पहले मूलगाथा और यथाक्रम शब्दार्थ, गाथार्थ के पश्चात् विशेषार्थ के रूप में गाथा के हार्द को स्पष्ट किया है । यथास्थान ग्रन्थातरों, मतान्तरों के मन्तव्यों का टिप्पण के रूप में उल्लेख किया है ।
इस समस्त कार्य की सम्पन्नता पूज्य गुरुदेव के वरद आशीर्वादों का सुफल है । एतदर्थ कृतज्ञ हूं। साथ ही मरुधरारत्न श्री रजतमुनि जी एवं मरुधराभूषण श्री सुकनमुनिजी का हार्दिक आभार मानता हूँ कि कार्य की पूर्णता के लिए प्रतिसमय प्रोत्साहन एवं प्रेरणा का पाथेय प्रदान किया ।
ग्रन्थ की मूल प्रति प्राप्ति के लिए श्री लालभाई दलपतभाई संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद के निदेशक एवं साहित्यानुरागी श्री दलसुखभाई मालवणिया का सस्नेह आभारी हूं । साथ ही वे सभी धन्यवादाईं हैं, जिन्होंने किसी न किसी रूप में अपना-अपना सहयोग दिया है।
ग्रन्थ के विवेचन में पूरी सावधानी रखी है और ध्यान रखा है कि सैद्धान्तिक भूल, अस्पष्टता आदि न रहे एवं अन्यथा प्ररूपणा भी न हो जाये । फिर भी यदि कहीं चूक रह गई हो तो विद्वान पाठकों से निवेदन है कि प्रमादजन्य स्खलना मानकर त्रुटि का संशोधन, परिमार्जन करते हुए सूचित करें । उनका प्रयास मुझे ज्ञानवृद्धि में सहायक होगा । इसी अनुग्रह के लिए सानुरोध आग्रह है ।
भावना तो यही थी कि पूज्य गुरुदेव अपनी कृति का अवलोकन करते, लेकिन सम्भव नहीं हो सका । अतः 'कालाय तस्मै नमः' के साथ-साथ विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में
त्वदीयं वस्तु गोविन्द ! तुभ्यमेव समर्प्यते । के अनुसार उन्हीं को सादर समर्पित है । खजांची मोहल्ला
बीकानेर, ३३४००१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
विनीत देवकुमार जैन
www.jainelibrary.org