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उदय के समान ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के प्रकार क्रम से उदीरणा का विचार किया है ।
प्रकृत्युदीरणा का वर्णन लक्षण, भेद, साद्यादि निरूपण और स्वामित्व इन चार प्रकार द्वारा किया है ।
तदनन्तर लक्षण, भेद, साद्यादि प्ररूपणा, अद्धाच्छेद और स्वामित्व इन पांच अर्थाधिकारों द्वारा स्थित्युदीरणा का निरूपण किया है । स्वामित्व और अद्धाच्छेद का वर्णन प्रायः स्थितिसंक्रम के समान है । किन्तु जिन प्रकृतियों के बारे में जो विशेष है, उसका स्पष्टीकरण यथाक्रम से यहां किया है ।
अनुभागोदीरणा के छह विचारणीय विषय हैं - १. संज्ञा, २. शुभाशुभ, ३. विपाक, ४. हेतु, ५. साद्यादि और ६ स्वामित्व । इनमें से संज्ञा, शुभाशुभत्व, विपाक और हेतु के अवान्तर प्रकारों द्वारा विस्तृत विचार किया है । बंध और उदय के प्रसंग में भी इनका विचार किया है, लेकिन अनुभागोदीरणा के विषय में जो कुछ विशेष है, उसका पृथक से निर्देश कर दिया है ।
प्रदेशोदीरणा के विचार के दो अर्थाधिकार हैं- साद्यादि और स्वामित्व प्ररूपणा ।
इस प्रकार से प्रकरण में उदीरणाकरण सम्बन्धी विषयों का विचार नवासी गाथाओं में है । जिनमें से एक से चौबीस तक की गाथाओं में प्रकृत्युदीरणा का, पच्चीस से उनतालीस तक की गाथाओं में स्थित्युदीरणा का, चालीस से अस्सी तक की गाथाओं में अनुभागोदीरणा का और इक्यासी से नवासी तक की गाथाओं में प्रदेशोदीरणा का विचार किया है। इस समग्र वर्णन का सुगम बोध कराने के लिये परिशिष्ट में सम्बन्धित प्रारूप दिये हैं ।
प्राक्कथन के रूप में अधिकार के वर्ण्य विषयों की संक्षेप में रूपरेखा अंकित की है । समग्र वर्णन के लिये पाठकगण अधिकार का अध्ययन करें । विज्ञेषु किं बहुना ।
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सम्पादक
देवकुमार जैन
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