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पंचसंग्रह : ३
उदयविचार के प्रसंग में सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय का भी उदय होने से उनकी वृद्धि करने पर एक सौ बाईस प्रकृतियां उदययोग्य मानी जाती हैं ।
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सत्ता में जिनकी बंध और उदय में विवक्षा नहीं की गई है ऐसी बंधन की पांच, संघातन की पांच और वर्णादिचतुष्क के स्थान पर उनकी सभी बीस प्रकृतियों का ग्रहण होने से कुल एक सौ अड़तालीस उत्तरप्रकृतियां सत्तायोग्य मानी जाती हैं।1
इस प्रकार से बंध, उदय और सत्ता योग्य प्रकृतियों का विवेचन करने के पश्चात् अब यह स्पष्ट करते हैं कि बंधन नामकर्म के पांच के बजाय पन्द्रह भेद किस प्रकार होते हैं और पन्द्रह भेद मानने में अन्य आचार्यों का क्या दृष्टिकोण है ।
बंधननामकर्म के पन्द्रह भेद
वेउव्वाहारोरालियाण सग तेयकम्मजुत्ताणं । . नव बंधणाणि इयरदुजुत्ताणं तिण्णि तेसिं च ॥। ११॥
शब्दार्थ --- वेउव्वाहारोरालियाण – क्रिय, आहारक और औदारिक का सग - स्व के साथ (अपने नाम वाले के साथ), तेयकम्मजुत्ताणं - तैजस और कार्मण के साथ जोड़ने पर, नव-नौ, बंधणाणि - बंधन, इयरदुजुत्ताणं - परस्पर दोनों के जोड़ने पर, तिष्णि-- तीन, तेसिं— उनके, च-- और ।
१ श्रीमद् गर्गषि और शिवशर्मसूरि आदि के मतानुसार सत्तायोग्य एक सौ अट्ठावन प्रकृतियां मानने पर बम्धन के पन्द्रह भेदों की विवक्षा करना चाहिए । तब एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों में जो बंधन के पांच भेदों का ग्रहण किया है, उनमें बंधन के शेष दस भेदों को मिलाने से कुल एक सो अट्ठावन उत्तरप्रकृतियां हो जाती हैं ।
दिगम्बर कर्मसाहित्य में सत्तायोग्य प्रकृतियां एक सौ अड़तालीस मानी हैं ।
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