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________________ बंधव्य-त्ररूपणा अधिकार : गाथा : १० ५७ की तैजसशरीरनामकर्म के अन्तर्गत और कार्मण बंधन और संघातन नामकर्म की कार्मणशरीरनामकर्म के अन्तर्गत विवक्षा की जाती है । ___ इसी प्रकार वर्ण, गंध, रस और स्पर्श नामकर्म के अवान्तर पांच, दो, पांच और आठ उत्तर भेदों की बंध और उदय में विवक्षा नहीं करके सामान्य से चार ही गिने जाते हैं। क्योंकि इन बीस प्रकृतियों का साथ ही बंध और उदय होता, एक भी प्रकृति पूर्व या पश्चात् बंध या उदय में से कम नहीं होती है। जिससे इस प्रकार की विवक्षा की है तथा दर्शनमोहनीय की दो उत्तर प्रकृतियां- सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय को बंध में ग्रहण नहीं करते हैं। क्योंकि उनका बंध ही नहीं होता है। जिसका कारण यह है कि जैसे छाछ आदि औषधिविशेष के द्वारा मदन कोद्रव (कोदों-एक प्रकार का धान्य, जिसके खाने से नशा होता है) शुद्ध करते है, उसी प्रकार आत्मा भी मदन को द्रव जैसे मिथ्यात्व मोहनीयकर्म के दलिकों को औषधि के सामन सम्यक्त्व,के अनुरूप विशुद्धि विशेष के द्वारा शुद्ध करके तीन भागों में बांट देती है-शुद्ध, अर्धविशुद्ध और अशुद्ध । उनमें से सम्यक्त्व रूप को प्राप्त हुए अर्थात् जो सम्यक्त्व की प्राप्ति में विघातक नहीं ऐसे शुद्ध पुद्गल सम्यक्त्वमोहनीय कहलाते हैं तथा अल्पशुद्धि को प्राप्त हुए अर्धविशुद्ध पुद्गलों को मिश्रमोहनीय कहा जाता है और जो किंचिमात्र भी शुद्धि को प्राप्त नहीं हुए, परन्तु मिथ्यात्वमोहनीय रूप में ही रहे हुए हैं, वे अशुद्ध कहलाते हैं। इस प्रकार सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय सम्यक्त्व गुण द्वारा सत्ता में रहे हुए मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के शुद्ध हुए पुद्गल होने से उनका बंध नहीं होता है, किन्तु मिथ्यात्व का ही बंध होता है। जिससे बंधविचार के प्रसंग में सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय के सिवाय मोहनीयकर्म की छब्बीस और पांच बंधन, पांच संघातन एवं वर्णादि सोलह के बिना नामकर्म की सड़सठ प्रकृतियां ग्रहण की जाती हैं। शेष कर्मों की प्रकृतियों में कोई अल्पाधिकता नहीं है। जिससे सभी प्रकृतियों को जोड़ने पर बंध में एक सौ बीस प्रकृतियां बंधयोग्य मानी,जाती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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