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पंचसंग्रह : ३ भेद बंध और उदय में विवक्षित नहीं किये जाते हैं तथा सम्यक्त्वमोहनीय एव मिश्रमोहनीय का बंध होता ही नहीं है। इसी कारण बंध, उदय और सत्ता की अपेक्षा प्रकृतियों की संख्या में अन्तर समझना चाहिये।
विशेषार्थ-- गाथा में विवक्षाभेद के सामान्य सूत्र का संकेत किया है कि बंध और उदय का जब विचार किया जाता है, तब यह समझना चाहिये कि बंधननामकर्म के पांच भेदों की और संघातननामकर्म के पांच भेदों की अपने-अपने शरीर के अन्तर्गत विवक्षा की गई है। इसका कारण यह है कि यद्यपि पांचों बंधन और पांचों संघातन नामकर्मों का बंध होता है और उदय भी होता है, लेकिन जिस शरीरनामकर्म का बंध या उदय होता है, उसके साथ ही उस शरीरयोग्य बंधन और संघातन का अवश्य ध और उदय होता ही है। जिससे बांध और उदय में उन दोनों की विवक्षा नहीं की जाती है किन्तु सत्ता में उन्हें पृथक-पृथक् बतलाया है और वैसा बताना युक्तिसंगत भी है। जिसका कारण यह है__ यदि सत्ता में उनको पृथक्-पृथक् न बताया जाये तो मूल वस्तु के अस्तित्व का ही लोप हो जायेगा और उसके फलस्वरूप यह मानना पड़ेगा कि बंधन और संघातन नाम का कोई कर्म नहीं है। परन्तु यह मानना अभीष्ट नहीं है। इसीलिए सत्ता में उनको अलग-अलग बतलाया गया है।
अब यह बतलाते हैं किस-किस बंधन और संघातन की किस-किस शरीर के अन्तर्गत विवक्षा की गई है
औदारिक बंधन और संवातन नामकर्म की औदारिकशरीरनामकर्म के अन्तर्गत, वैक्रिय बंधन और संघातन नामकर्म की वैक्रियशरीरनामकर्म के अन्तर्गत, आहारक बंधन और संघातन नामकर्म की आहारकशरीर नामकर्म के अन्तर्गत, तैजस बंधन और संघातन नामकर्म
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