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बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८
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यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति-तप, शौर्य, त्यागादि के द्वारा उपार्जन किये गये यश से जिसका कीर्तन किया जाये, प्रशंसा की जाये, उसे यशः कीर्ति कहते हैं । अथवा यश अर्थात् सामान्य से ख्याति और कीर्ति यानी गुणों के वर्णन रूप प्रशंसा, अथवा सर्व दिशा में फैलने वाली, पराक्रम से उत्पन्न हुई और सभी मनुष्यों द्वारा प्रशंसनीय जो कीर्ति, वह यश है और एक दिशा में फैलने वाली दान, पुण्य आदि से उत्पन्न हुई जो प्रशंसा वह कीर्ति है । वह यश और कीर्ति जिस कर्म के उदय से उत्पन्न हो उसे यशः कीर्तिनामकर्म कहते हैं। उससे विपरीत अयश:कीर्तिनामकर्म है कि जिस कर्म के उदय से मध्यस्थ मनुष्यों के द्वारा भी अप्रशंसनीय हो ।
इस प्रकार सप्रतिपक्ष प्रत्येक बीस प्रकृतियों का स्वरूप जानना चाहिए । यहाँ पर जिस क्रम से सप्रतिपक्ष त्रसादि प्रकृतियों का कथन किया गया है, वह इन प्रकृतियों की संज्ञा आदि की द्विविधता को बतलाता है कि सादि दस प्रकृतियां त्रसदशक कहलाती हैं और स्थावर आदि दस प्रकृतियों को स्थावरदशक कहते हैं । अन्यत्र भी जहाँ कहीं भी सादि का ग्रहण किया जाये वहाँ यही त्रसादि दस प्रकृतियां समझना चाहिये और स्थावरादि दस का ग्रहण किया जाये तो वहाँ सादि की प्रतिपक्ष स्थावरादि दस प्रकृतियां जानना चाहिए तथा सादि दस और स्थावरादि दस प्रकृतियां दोनों यथाक्रम से परस्पर विरोधी हैं । जैसे कि त्रस के विरुद्ध स्थावर, बादर के विरुद्ध सूक्ष्म इत्यादि तथा सचतुष्क, स्थावरचतुष्क, स्थिरषट्क, अस्थिर षट्क आदि संज्ञाओं में ग्रहण की गई प्रकृतियां उस प्रकृति से लेकर आगे की प्रकृतियों को उस संख्या की पूर्ति तक लेना चाहिए।
जिसके उदय से शरीर प्रभायुक्त हो वह आदेयनामकर्म है और जिसके उदय से शरीर में प्रभा न हो, उसे अनादेयनामकर्म कहते हैंप्रभोपेतशरीर कारणमादेयनाम । निष्प्रभशरीरकारणमनादेयनाम |
- दि. कर्मप्रकृति पृ. ४७,४६
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