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पंचसंग्रह : ३
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उत्तर- उक्त प्रश्न असंगत है । क्योंकि कामी पुरुष को कामिनी के पाद आदि के स्पर्श से जो सन्तोष होता है, उस सन्तोष में मोह कारण है, अर्थात् वह तो मोहनिमित्तक है, वास्तविक नहीं है। यहाँ तो वस्तुस्थिति का विचार किया जा रहा है। इसलिए अशुभनामकर्म के उक्त लक्षण में किसी प्रकार का दोष नहीं समझना चाहिये ।
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सुस्वर - दुःस्वर - जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्णप्रिय हो, श्रोताओं को प्रीति का कारण होता है, उसे सुस्वरनामकर्म कहते हैं । उससे विपरीत दुःस्वरनामकर्म है कि जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्णकटु, श्रोताओं को अप्रीति का कारण होता है ।
सुभग- दुभंग - जिस कर्म के उदय से उपकार नहीं करने पर भी जीव सबको मनःप्रिय होता है, वह सुभगनामकर्म है और उससे विपरीत दुर्भगनामकर्म जानना चाहिए कि जिस कर्म के उदय से उपकार करने पर भी अन्य जीवों को अप्रिय लगता है, द्व ेष का पात्र होता है ।
प्रश्न - तीर्थंकर भी अभव्यों के द्वेषपात्र होते हैं, तो क्या तीर्थंकरों को भी दुर्भगनामकर्म का उदय माना जाये ?
उत्तर - नहीं। क्योंकि तीर्थंकर भी जो अभव्यों के द्वेषपात्र होते हैं, उसमें दुर्भगनामकर्म का उदय निमित्त नहीं है। किन्तु अभव्यों का हृदयगत मिथ्यात्व ही इसका कारण है ।
आदेय - अनादेय - जिस कर्म के उदय से मनुष्य जो प्रवृत्ति करे, जिस किसी वचन को बोले, उसको लोक प्रमाण माने और उसके दिखने पर अभ्युत्थान आदि आदर-सत्कार करते हैं, वह आदेयनामकर्म है और उसके विपरीत अनादेयनामकर्म जानना चाहिये कि जिस कर्म के उदय से युक्ति-युक्त कथन करने पर भी लोग उसके वचन को मान्य न करें तथा उपकार आदि करने पर भी अभ्युत्थान आदि की प्रवृत्ति न करें । 1
१ दिगम्बर कर्मसाहित्य में आदेय और अनादेय नामकर्म के लक्षण इस प्रकार बताये हैं
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