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________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८ उद्योत-जिस कर्म के उदय से जीवों के शरीर शीतल प्रकाश रूप उद्योत करते हैं, उसे उद्योत नामकर्म कहते हैं। इसका उदय साधु और देवों के उत्तरवैक्रियशरीर में, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं के विमानों में, रत्नों और औषधिविशेषों में होता है । निर्माण-जिस कर्म के उदय से जीवों के शरीरों में अपनी-अपनी जाति के अनुसार अंग-प्रत्यंग की नियत स्थानवतिता (जिस स्थान पर जो अंग-प्रत्यंग होना चाहिए, तदनुरूप उसकी व्यवस्था) होती है, उसे निर्माण नामकर्म कहते हैं। यह कर्म सूत्रधार के समान है। इस कर्म का अभाव मानने पर भृत्य-नौकर के सदृश अंगोपांगनामादि के द्वारा शिर, उदर, वक्षस्थल आदि की रचना होने पर भी नियत स्थान पर उनकी रचना होने का नियम नहीं बन सकता है। तीर्थकरनाम-जिस कर्म के उदय से अष्ट महाप्रातिहार्य आदि चौंतीस अतिशय प्रगट होते हैं, वह तीर्थंकर नामकर्म है। - इस प्रकार से गाथा में बताई गई नामकर्म की आठ अप्रतिपक्षा प्रत्येक प्रकृतियों के लक्षण जानना चाहिए और चौदह पिंड प्रकृतियों का स्वरूप पूर्व गाथा में बतलाया जा चुका है। अब शेष रही सप्रतिपक्षा प्रत्येक प्रकृतियों का कथन करते हैं तसबायरपज्जत्तं पत्तेय थिरं सुभं च नायव्वं । सुस्सरसुभगाइज्ज जसकित्ती सेयरा वीसं ॥८॥ शब्दार्थ-तसबायरपज्जत्त-त्रस, बादर, पर्याप्त, पत्तेय-प्रत्येक, थिरं-स्थिर, सुभं-शुभ, च-और, नायव्वं-जानना चाहिये, सुस्सर१ दिगम्बर कर्मसाहित्य में स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण ऐसे निर्माण के दो भेद करके इनका कार्य अंगोपांग को यथास्थान व्यवस्थित करने के उपरांत उनको प्रमाणोपेत बनाना भी माना है। यनिमित्तात्परिनिष्पत्तिस्तन्निर्माणनाम । तद्विविधम्-स्थाननिर्माणं, प्रमाण निर्माणं चेति । तत्र जातिनामोदयापेक्षं चक्षुरादीनां स्थानं प्रमाण च निवर्तयति, निर्मीयतेऽनेनेति वा निर्माणम् । --दि. कर्मप्रकृति पृ. ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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