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________________ २८ पंचसंग्रह : ३ इस प्रकार आयु, वेदनीय और गोत्र कर्म की चार, दो, दो उत्तरप्रकृतियां जानना चाहिए। ज्ञानावरण आदि सात कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के भेदों को बतलाने के पश्चात अब शेष रहे नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों का निरूपण करते हैं। नामकर्म की उत्तरप्रकृतियां गइजाइसरीरंगं बंधण संघायणं च संघयणं । संठाण वन्नगंधरसफास अणुपुदिव विहगगई ॥६।। शब्दार्थ-गइजाइसरीरंग-गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, बंधणबंधन, संघायणं-संघातन, च-और, संघयणं-संहनन, संठाण-संस्थान, वनगंधरसफास-वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अणुपुस्वि-आनुपूर्वी, विहगगईविहायोगति । गाथार्थ-गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, बंधन, संघातन, संहनन, संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आनुपूर्वी और विहायोगति, ये नामकर्म की चौदह पिंड प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ-अन्य सात कर्मों की अपेक्षा नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों की संख्या सबसे अधिक है। जिनको पिंडप्रकृति और प्रत्येकप्रकृति इन दो वर्गों में विभाजित करके निरूपण किया गया है। इस गाथा में पिंडप्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। __जिनके और अवान्तर भेद हो सकते हैं, उन्हें पिंडप्रकृति कहते हैं। . ऐसी पिंडप्रकृतियों की संख्या चौदह है । अवान्तर भेदों के नाम सहित जिनके लक्षण इस प्रकार हैं। गति-तथाप्रकार के कर्मप्रधान जीव द्वारा जो प्राप्त की जाये अथवा तथाप्रकार के कर्म द्वारा जीव जिसको प्राप्त करे, उसे गति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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