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________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ जिस कर्म के उदय से आत्मा अमुक नियत काल तक देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक पर्याय में बनी रहे, उसे देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु कर्म कहते हैं । आयुकर्म अमुक गति में अमुक काल पर्यन्त आत्मा की स्थिति बनाये रखने में एवं उस गति के अनुरूप कर्मों का उपभोग कराने में हेतु है। ____ आयुकर्म के देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक आयुभेदों में से सांसारिक सुख की प्रधानता बताने के लिए पहले देवायु और उसके बाद उत्तरोत्तर सुख की अल्पता बताने के लिए मनुष्य, तिर्यंच और नरक आयुओं का उपन्यास किया है। इस प्रकार से आयुकर्म के चार भेदों का लक्षण जानना चाहिए। अब वेदनीय और गोत्र कर्म की दो, दो प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं। वेदनीयकर्म के दो उत्तरभेद इस प्रकार हैं-सातावेदनीय, असातावेदनीय। जिस कर्म के उदय से जीव आरोग्य और विषयोपभोगादि इष्ट साधनों के द्वारा उत्पन्न आह्लाद रूप सुख का अनुभव करता है, वह सातावेदनीय है और जिस कर्म के उदय से रोग आदि अनिष्ट साधनों द्वारा उत्पन्न हुए खेद रूप दुःख का अनुभव करे उसे असातावेदनीय कहते हैं। गोत्रकर्म की दो प्रकृतियों के नाम हैं-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । इनमें से जिस कर्म के उदय से उत्तम जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, श्रु त, सत्कार, अभ्युत्थान, अंजलिप्रग्रह आदि सम्भव हो, उसे उच्चगोत्र कहते हैं और जिस कर्म के उदय से ज्ञानादि युक्त होने पर भी निन्दा हो और हीन कुल, जाति आदि आदि सम्भव हो वह नीचगोत्र कहलाता है । उच्चगोत्र के उदय से जीव उच्च कुल, उच्च जाति में जन्म लेता है । जिसके कारण तप, ऐश्वर्य आदि प्रायः सुलभ होता है और नीचगोत्र के उदय से नीच कुल, नीच जाति में जन्म धारण करता है, उसमें तप, ऐश्वर्य आदि प्रायः दुर्लभ है ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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