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________________ पंचसंग्रह : ३ दर्शनमोहनीय के उपशम या क्षय के पश्चात् ही चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय होने पर भी पहले यहाँ चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों के क्रमविन्यास का कारण यह है कि चारित्रमोह की प्रकृतियां तो प्रतिपद्यमानचारित्र, प्रतिपतितचारित्र अथवा अप्राप्त चारित्र वालों में से प्रत्येक को यथायोग्य प्रमाण में पाई जाती हैं, किन्तु दर्शनमोहत्रिक में से तो अप्राप्तसम्यक्त्व वालों और प्रतिपतितसम्यक्त्व वालों में से किन्हीं-किन्हीं को एक मिथ्यात्व प्रकृति ही प्राप्त होती है, न कि सदैव दर्शनत्रिक । इसी अर्थ को बताने के लिए पहले चारित्रमोह की प्रकृतियों का और उसके पश्चात् दर्शनमोह की प्रकृतियों का उपन्यास किया है। इस प्रकार मोहनीयकर्म की सभी अट्ठाईस प्रकृतियों के लक्षण जानना चाहिए । अब क्रमप्राप्त आयुकर्म की तथा अल्पवक्तव्य होने से वेदनीय और गोत्र कर्म की उत्तरप्रकृतियों को बतलाते हैंआयु, वेदनीय और गोत्र कर्म की उत्तरप्रकृतियां ' सुरनरतिरिनिरयाऊ सायासायं च नीउच्चं ॥५॥ शब्दार्थ-सुरनरतिरिनिरयाऊ-देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरकायु, सायासायं -साता, असाता, च-और, नी उच्च-नीच-उच्चगोत्र । __गाथार्थ-देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु यह आयुकर्म के चार भेद हैं। साता और असाता के भेद से वेदनीयकर्म के दो भेद तथा नीच और उच्च यह गोत्र के दो भेद हैं। विशेषार्थ- गाथा के पूर्वार्ध में मोहनीयकर्म के भेदों को बताया था और उत्तरार्ध में आयु, वेदनीय और गोत्र कर्म की क्रमशः चार, दो, दो उत्तरप्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। उनमें से आयुकर्म की चार उत्तरप्रकृतियों के नाम ये हैं देवायु, मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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