________________
बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६
कहते हैं।1 यद्यपि शरीर, संहनन आदि सभी कर्मों द्वारा प्राप्त होते हैं
तथापि गति यह रूढ़ अर्थवाली होने से आत्मा की जो नारकत्व आदि पर्याय होती है, इसी अर्थ में गति शब्द का उपयोग होता है । गति के चार भेद हैं। (१) नरकगति, (२) तिर्यंचगति, (३) मनुष्यगति और (४) देवगति ।2 मनुष्यत्व, देवत्व आदि रूप उस-उस पर्याय के होने में हेतुभूत जो कर्म उसे तत्तत् गति नामकर्म कहते हैं। जैसे कि जिस कर्म के उदय से आत्मा को देव पर्याय की प्राप्ति हो उसे देवगति नामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार मनुष्यगति 'आदि के लक्षण भी समझ लेना चाहिये।
जाति-अनेक भेद-प्रभेद वाले एकेन्द्रिय आदि जीवों का एकेन्द्रियत्व आदि रूप जो समान-एक जैसा परिणाम कि जिससे अनेक प्रकार के एकेन्द्रियादि जीवों का एकेन्द्रियादि के रूप में व्यवहार हो, ऐसे सामान्य को जाति और उसके कारणभूत कर्म को जातिनामकर्म कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि द्रव्यरूप बाह्य और आभ्यंतर नासिका, कर्ण आदि इन्द्रियां तो अंगोपांग नामकर्म और इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म के सामर्थ्य से और भावेन्द्रियां स्पर्शनादि इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम से सिद्ध हैं । परन्तु यह एकेन्द्रिय है, यह द्वीन्द्रिय है, इस प्रकार के शब्दव्यवहार में कारण तथाप्रकार का समान परिणाम रूप जो सामान्य, वह अन्य से असाध्य होने से, उसका कारण जातिनामकर्म है। उसके पांच
१ दिगम्बर कर्मसाहित्य में गतिनामकर्म का लक्षण यह बताया है जिसके उदय से जीव भवान्तर को जाता हैयदुदयाज्जीवः भवान्तरं गच्छतिः सा गतिः ।
__-दि. कर्मप्रकृति पृ. ३५ २ नारकतर्यग्योनमानुषदैवानि ।
-तत्त्वार्थसूत्र ८।११ ३ चेतनाशक्ति के विकास के तारतम्य की व्यवस्था में जातिनामकर्म कारण
है । जैसे कि एकेन्द्रिय की अपेक्षा द्वीन्द्रिय में चेतना का विकास अधिक है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर क्रमशः त्रीन्द्रिय आदि के लिए समझ लेना चाहिये ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org