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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५
इस प्रकार के ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म की उत्तरप्रकृतियों का वर्णन करने के पश्चात् उनके समान मोहनीय के भी घाति होने से अब मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों को बतलाते हैं। मोहनीय की उत्तरप्रकृतियां
सोलस कसाय नव नोकसाय सणतिगं च मोहणोयं ।
शब्दार्थ-सोलस-सोलह, कसाय-कषाय, नव-नौ, नोकसायनोकषाय, दसणतिगं-दर्शन त्रिक, च-और, मोहणीयं-मोहनीय ।
___गाथार्थ-सोलह कषाय, नौ नोकषाय औरः दर्शनत्रिक ये मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ-गाथा के पूर्वार्ध में मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों के अट्ठाईस भेदों के नाम बतलाये हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
मोहनीयकर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । इनमें से चारित्रमोहनीय की अधिक प्रकृतियां होने और उनके सम्बन्ध में कथनीय भी बहुत होने से पहले चारित्रमोहनीय के भेदों को बतलाते हैं कि सोलह कषाय और नव नोकषाय, इस प्रकार चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं।
___ जो आत्मा के गुणों को कषे-नष्ट करे अथवा कष् का अर्थ है संसार और आय का अर्थ है प्राप्ति, अतः जो अनन्त संसार की प्राप्ति कराने में कारण हो, उसे कषाय कहते हैं। अथवा जिसके कारण आत्मायें संसार में परिभ्रमण करें उसे कषाय कहते हैं। कपाय के मूल चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इन चारों के भी तीव्र-मन्दादि के भेद से अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और
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