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पंचसंग्रह : ३
जिससे एक स्थान पर बैठे या खड़े हुए को प्राप्त होने वाली प्रचला की अपेक्षा इस निद्रा का अतिशायित्व है ।
पिंडित हुई जो आत्मशक्ति अथवा वासना जिस सुप्त स्थिति में प्रगट हो उसे स्त्यानद्धि अथवा स्त्यानगृद्धि कहते हैं । क्योंकि जब यह निद्रा आती है तब प्रथम संहनन वाले वासुदेव के बल से आधा बल इस निद्रा में उत्पन्न हो जाता है । जैसे कि किसी मनुष्य को रोग के जोर से बल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार इस निद्रावाला अतृप्त वासना को रात्रि में सोते-सोते पूर्ण कर देता है । शास्त्रों में इस सम्बन्धी अनेक उदाहरणों का उल्लेख है । 1 स्त्यानद्धि के विपाक का अनुभव कराने वाली कर्म प्रकृति भी कारण में कार्य का आरोप करने से स्त्यानद्धि कहलाती है ।
चक्षुदर्शनावरण आदि चार कर्मप्रकृतियां तो मूल से ही दर्शनलब्धि का घात करती हैं। यानी उनके उदय से चक्षु-दर्शन आदि प्राप्त नहीं होते हैं अथवा उनके क्षयोपशम के अनुसार ही प्राप्त होते हैं और निद्रायें दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त दर्शनलब्धि को दबाती हैं । "
निद्राओं को भी दर्शनावरण में ग्रहण करने का कारण यह है कि निद्रायें छद्मस्थ को ही होती हैं और छद्मस्थ को पहले दर्शन और पश्चात् ज्ञान होता है । इसलिए निद्रा के उदय से जब दर्शनलब्धि दबती है, तब ज्ञान तो दबेगा ही । इसलिये उनको ज्ञानावरण में न गिनकर दर्शनावरण में ग्रहण किया गया है ।
१) विशेषावश्यकभाष्य में एतद् विषयक कई उदाहरण दिये हैं ।
दर्शनलब्धे रुपघात कृत्,
२ इदं च निद्रापंचकं
प्राप्ताया:
ष्टयं तु मूलत एव दर्शनलब्धेरिति ।
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दर्शनावरणचतु
- पंचसंग्रह मलय. टीका, पृ. ११०
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