SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ पंचसंग्रह : ३ जिससे एक स्थान पर बैठे या खड़े हुए को प्राप्त होने वाली प्रचला की अपेक्षा इस निद्रा का अतिशायित्व है । पिंडित हुई जो आत्मशक्ति अथवा वासना जिस सुप्त स्थिति में प्रगट हो उसे स्त्यानद्धि अथवा स्त्यानगृद्धि कहते हैं । क्योंकि जब यह निद्रा आती है तब प्रथम संहनन वाले वासुदेव के बल से आधा बल इस निद्रा में उत्पन्न हो जाता है । जैसे कि किसी मनुष्य को रोग के जोर से बल उत्पन्न होता है, उसी प्रकार इस निद्रावाला अतृप्त वासना को रात्रि में सोते-सोते पूर्ण कर देता है । शास्त्रों में इस सम्बन्धी अनेक उदाहरणों का उल्लेख है । 1 स्त्यानद्धि के विपाक का अनुभव कराने वाली कर्म प्रकृति भी कारण में कार्य का आरोप करने से स्त्यानद्धि कहलाती है । चक्षुदर्शनावरण आदि चार कर्मप्रकृतियां तो मूल से ही दर्शनलब्धि का घात करती हैं। यानी उनके उदय से चक्षु-दर्शन आदि प्राप्त नहीं होते हैं अथवा उनके क्षयोपशम के अनुसार ही प्राप्त होते हैं और निद्रायें दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त दर्शनलब्धि को दबाती हैं । " निद्राओं को भी दर्शनावरण में ग्रहण करने का कारण यह है कि निद्रायें छद्मस्थ को ही होती हैं और छद्मस्थ को पहले दर्शन और पश्चात् ज्ञान होता है । इसलिए निद्रा के उदय से जब दर्शनलब्धि दबती है, तब ज्ञान तो दबेगा ही । इसलिये उनको ज्ञानावरण में न गिनकर दर्शनावरण में ग्रहण किया गया है । १) विशेषावश्यकभाष्य में एतद् विषयक कई उदाहरण दिये हैं । दर्शनलब्धे रुपघात कृत्, २ इदं च निद्रापंचकं प्राप्ताया: ष्टयं तु मूलत एव दर्शनलब्धेरिति । Jain Education International दर्शनावरणचतु - पंचसंग्रह मलय. टीका, पृ. ११० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy