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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४
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इस प्रकार के विपाक का अनुभव कराने वाली कर्मप्रकृति भी प्रचला कहलाती है।
स्त्यानद्धित्रिक की अपेक्षा यह दो निद्रायें मन्द हैं । दर्शनावरणषट्क का जहाँ उल्लेख किया जाता है, वहाँ ये छह प्रकृतियां ग्रहण की जाती हैं।
इस दर्शनावरणषट्क में दो बार कही गई निद्रा और प्रचला को स्त्यानद्धि के साथ गिनने पर दर्शनावरण के नौ भेद होते हैं । निद्रा से भी अतिशायिनी (अधिक तीव्र) गहरी निद्रा को निद्रा-निद्रा कहते हैं। इसके अन्दर चैतन्य अत्यन्त अस्फुट होने से अधिक आवाजें लगानी पड़ती हैं, शरीर को हिलाना-डुलाना पड़ता है तब सोया हुआ व्यक्ति प्रबुद्ध होता है । इस कारण सुखपूर्वक प्रबोध होने में हेतुभूत निद्रा कर्मप्रकृति की अपेक्षा इस निद्रा में अतिशायित्व है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिसके उदय से ऐसी गहरी नींद आये कि बहुत सी आवाजें लगाने पर तथा हिलाने आदि के द्वारा जागना होता है, उसे निद्रानिद्रा कहते हैं । इस प्रकार की निद्रा में हेतुभूत कर्मप्रकृति भी निद्रानिद्रा कहलाती है।
प्रचना से अतिशयिनी जो निद्रा उसे प्रचला-प्रचला कहते हैं। ऐसो निद्रा चलते-चलते भी आने लगती है। यानी जिस कर्म के उदय से चलते-चलते जो नींद आती है, वह प्रचला-प्रचला कहलाती है ।
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दिगम्बर कर्मसाहित्य में प्रचला-प्रचला का यह लक्षण किया गया है जिसके उदय से सोते में जीव के हाथ पैर भी चलें और मुह से लार में गिरेपयलापयलुदएण य वहेदि लाला चलंति अंगाई।
. -दि. कर्मप्रकृति गा. ५०
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