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________________ पंचसंग्रह : ३ संज्वलन ये चार-चार भेद होते हैं। जिससे कषाय के सोलह भेद हो जाते हैं । अनन्तानुबंधी आदि के लक्षण इस प्रकार हैं अनन्त संसार की परम्परा की वृद्धि करने वाली कषायों को अनन्तानुबंधीकषाय कहते हैं। तीव्र राग और द्वेष, क्रोधादि से आत्मा अनन्त संसार में परिभ्रमण करती है, अनन्त जन्म-मरण की परम्परा में वृद्धि करती है, इसीलिए ऐसी कषाय का अनन्तानुबंधी यह सार्थक नाम है। अनन्तानुबंधीकषाय का अपर नाम संयोजना भी है। जिसका अर्थ है कि जिसके द्वारा आत्मायें अनन्त भवों-जन्मों के साथ जुड़ती हैं-संयोजित होती हैं, यानि जिसके कारण जीव अनन्त संसार में भटकते हैं, उसे संयोजना कहते हैं। इस कषाय का उदय रहने तक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता है और पूर्व प्राप्त सम्यक्त्व भी नष्ट हो जाता है । जिस कषाय के उदय से स्वल्प भी प्रत्याख्यान (त्याग) दशा प्राप्त न हो, स्वल्प भी प्रत्याख्यान करने का उत्साह न हो, उसे अप्रत्याख्यानावरणकषाय कहते हैं । यद्यपि अप्रत्याख्यानावरणकषाय के उदय से अल्प भी विरति के परिणाम नहीं होते हैं, तथापि सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इन सम्यक्त्वी आत्माओं को पाप-व्यापार से छूटने की इच्छा अवश्य होती है किन्तु छोड़ नहीं सकती हैं, त्याग नहीं कर १ अनन्तानुबंधी आदि उक्त चार भेदों में से अनन्तानबंधी अत्यंत तीव्र और अप्रत्याख्यानावरण आदि भेदत्रय उत्तरोत्तर क्रमशः मंद, मंदतर और मंदतम हैं। २ अनन्तान्यनुबध्नन्ति यतो जन्मानि भूतये । ततोऽनन्तानुबन्ध्याख्याः क्रोधाद्यषु नियोजिताः॥ ३ अनन्तानुबंधी–सम्यग्दर्शनोपघाती। तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते, पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति । -तत्वार्थसूत्र भाष्य ८।१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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