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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४
१५ और सत्ता में किसी समय चार प्रकार, किसी समय छह प्रकार और किसी समय नौ प्रकार यह तीन रूप सम्भव हैं । ये चार, छह और नौ प्रकार कैसे सम्भव हैं, इसको स्पष्ट करते हुए प्रथम चार प्रकारों को बतलाते हैं
चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन सम्बन्धी विषय को आवत करने वाला दर्शनावरणकर्म चार भेद वाला है-'नयणेयरोहिकेवल दसण-आवरणयं भवे चउहा' । तात्पर्य यह है कि जब बंध, उदय और सत्ता में दर्शनावरणकर्म के चार भेद की विवक्षा की जाती है तब वे चार भेद इस प्रकार समझना चाहिए-चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण।
चक्षु के द्वारा चक्ष विषय का जो सामान्य ज्ञान, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं । उसको आवृत करने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरण है । चक्षु के सिवाय शेष स्पर्शनादि चार इन्द्रियों और मन के द्वारा उस, उस इन्द्रिय के विषय का जो सामान्य ज्ञान वह अचक्षुदर्शन है और उसको आच्छादित करने वाला जो कर्म वह अचक्षुदर्शनावरण है। अचक्षु
१,२ चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण इन दो अलग-अलग भेद का
कारण यह है कि यदि सामान्य इन्द्रियावरण कहा जाता तो सभी आवरणों का समावेश होता है परन्तु लोक में यह वस्तु मैंने देखी है, यह देख रहा हूँ, ऐसा व्यवहार चक्षु के सम्बंध में ही होता है, अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में नहीं होता तथा विग्रहगति में जब अन्य कोई दर्शन नहीं होता तब अचक्षुदर्शन तो होता ही है, यह बताने के लिये चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन कहे हैं और इसीलिये दोनों दर्शनावरणों का पृथक् निर्देश किया है।
चक्खूणं जं पयासइ दीसइ तं चक्खुदंसणं विति । सेसिदियप्पयासों णायव्वो सो अचक्खु ति ॥
दि. कर्मप्रकृति गा. ४४
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