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________________ १४ पंचसंग्रह : ३ उपभोगान्तराय कहलाता है। खाद्य भोजन, पुष्प आदि भोग और वस्त्र, पात्र आदि उपभोग की कोटि में आते हैं। ___ वीर्यान्तराय-वीर्य यानि आत्मा की अनन्त शक्ति, उसको आवृत वाला कर्म वीर्यान्तराय कहलाता है। शरीर रोग रहित हो, युवावस्था हो किन्तु जिस कर्म के उदय से अल्प बल वाला हो अथवा शरीर बलवान हो किन्तु कोई सिद्ध करने लायक कार्य के उपस्थित होने पर हीनसत्वता के कारण उस कार्य को सिद्ध करने में प्रवृत्ति न कर सके, उसे वीर्यान्तरायकर्म कहते हैं। इस प्रकार से अन्तरायकर्म की पांच प्रकृतियां जानना चाहिये। अब समान स्थिति वाले और घातिकर्म होने से ज्ञानावरण के निकटवर्ती दूसरे दर्शनावरणकर्म की उत्तरप्रकृतियों को बतलाते हैं । दर्शनावरणकर्म की उत्तरप्रकृतियां नयणेयरोहिकेवल सण आवरणयं भवे चउहा । निद्दापयलाहिं छहा निदाइदुरुत्त थीणद्धी ॥४॥ शब्दार्थ-नयणेयरोहिकेवल-नयन (चक्षु), इतर (अचक्षु), अवधि और केवल, सण-दर्शन, आवरणयं-आवरण, भवे-है, चउहा-चार प्रकार का, निद्दापवलाहि-निद्रा और प्रचला के साथ, छहा-छह प्रकार का, निहाइदुरुत्त-दो बार बोली गई निद्रा और प्रचला, थीणद्धी--स्त्यानद्धि । ___गाथार्थ-चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शन के भेद से दर्शनावरणकर्म चार प्रकार का है, निद्रा और प्रचला के साथ छह भेद वाला है और दो बार बोली गई निद्रा और प्रचला तथा स्त्याद्धि के साथ नौ प्रकार का है। विशेषार्थ-गाथा में दर्शनावरणकर्म के भेद तीन खण्ड करके बतलाये हैं। इन तीन खण्डों को करने का कारण यह है कि बंध, उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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