________________
पंचसंग्रह ३
में हेतु होते हैं । वह इस प्रकार कि अतिगाढ़ ज्ञानावरणकर्म के रसोदय द्वारा सूक्ष्म और अतिसूक्ष्म पदार्थों का विचार करने में स्वयं को असमर्थ जानकर अनेक जीव अत्यन्त खेदखिन्न होते हैं, अत्यन्त दुःख का अनुभव करते हैं और ज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई पटुतायुक्त आत्मा सूक्ष्म, सूक्ष्मतर पदार्थों को अपनी बुद्धि के द्वारा जानते समय और दूसरे अनेक व्यक्तियों की अपेक्षा अपने को विशिष्ट देखकर अत्यन्त आनन्द - सुख का अनुभव करती है । इस प्रकार ज्ञानावरणकर्म का उदय और क्षयोपशम अनुक्रम से दुःख और सुख रूप वेदनीयकर्म के उदय में निमित्त होता है तथा गाढ़ दर्शनावरणकर्म के विपाकोदय द्वारा जन्मांध आदि होने से बहुत से व्यक्ति अति अद्भुत दुःख का अनुभव करते हैं और दर्शनावरणकर्म के क्षयोपशम द्वारा उत्पन्न हुई कुशलता - निपुणता द्वारा स्पष्ट चक्षु आदि इन्द्रियों से युक्त होकर यथार्थ रूप से वस्तु को देखकर आनन्द की अनुभूति करते हैं । इस तरह दर्शनावरणकर्म दुःख और सुखरूप वेदनीयकर्म के उदय में निमित्त होता है । इस आशय को बताने के लिए ज्ञानावरण, दर्शनावरण के पश्चात् वेदनीयकर्म का क्रमविन्यास किया है ।
वेदनीयकर्म इष्ट और अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर सुख या दुःख उत्पन्न करता है और इष्ट-अनिष्ट वस्तु के संयोग से संसारी आत्मा को अवश्य राग और द्वेष उत्पन्न होता है । इष्ट वस्तु का संयोग होने से 'अच्छा हुआ कि अमुक वस्तु मुझे मिली' ऐसा भाव और अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर 'यह वस्तु मुझे कहाँ से मिली ? कब इससे छुटकारा होगा ?' ऐसा भाव पैदा होता है । यही राग और द्वेष है और यह राग एवं द्वेष मोहनीयकर्म रूप ही है । इस प्रकार वेदनीयकर्म मोहनीय के उदय में कारण है । यही अर्थ बतलाने के लिए वेदनीय के अनन्तर मोहनीयकर्म का प्रतिविधान दिया है ।
IS
मोहरूढ़ आत्मायें बहु आरम्भ और परिग्रह वाले कार्यों में आसक्त होकर नरकादि के आयुष्य का बंध करती हैं । इस प्रकार मोहनीयकर्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org