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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १
ज्ञानावरणादि का क्रमविन्यास
प्रश्न- ज्ञानावरणादि कर्मों को इस क्रम से कहने का क्या प्रयोजन है ? अथवा प्रयोजन के बिना ही इस प्रकार का क्रमविन्यास किया है ?
उत्तर--जिस क्रम से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का विन्यास किया है, वह सप्रयोजन है । जो इस प्रकार समझना चाहिये--
ज्ञान और दर्शन जीव का स्वभाव है। क्योंकि ज्ञान और दर्शन के अभाव में जीवत्व हो ही नहीं सकता है। यदि जीवों में ज्ञान और दर्शन का ही अभाव हो तो उन्हें जीव नहीं कहा जा सकता है। इसलिए जीव में उसकी स्वरूपचेतना-ज्ञान और दर्शन होना ही चाहिये । इस ज्ञान और दर्शन में भी ज्ञान प्रधान अथवा मुख्य है। क्योंकि ज्ञान के द्वारा ही सभी शास्त्रों का विचार हो सकता है तथा जब कोई लब्धि प्राप्त होती है तो वह ज्ञानोपयोग में वर्तमान जीव को ही प्राप्त होती है, दर्शनोपयोग में वर्तमान जीव को प्राप्त नहीं होती है। तथा जिस समय आत्मा सम्पूर्ण कर्ममल से रहित होती है, उस समय ज्ञानोपयोग में ही वर्तमान होती है, दर्शनोपयोग में नहीं होती है। इस कारण ज्ञान प्रधान है और उसको आवृत करने वाला कर्म ज्ञानावरण होने से पहले उसका कथन किया है। तत्पश्चात् दर्शन को आवृत करने वाले दर्शनावरणकर्म का विन्यास किया है। क्योंकि ज्ञानोपयोग से च्युत आत्मा की दर्शनोपयोग में स्थिरता होती है।
ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म अपना विपाक बतलाते हुए यथायोग्य रीति से अवश्य सुख और दुःख रूप वेदनीयकर्म के उदय
१ सव्वा उ लद्धीओ सागरोवओगोवउत्तस्स, न अणागारोवओगोवउत्तस्स । २ तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान और सिद्धावस्था के प्रथम समय में आत्मा
ज्ञान के उपयोग में ही वर्तमान होती है।
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