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________________ बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १ आयुकर्म के बंध में कारण है, यह बताने के लिए मोहनीय के अनन्तर आयुकर्म का उपन्यास किया है । नरकायु आदि किसी भी आयु का जब उदय होता है तब अवश्य ही नरकगति, पंचेन्द्रियजाति आदि रूप नामकर्म का उदय होता है । इसलिए आयु के पश्चात् नामकर्म का क्रम रखा है । ह नामकर्म का जब उदय होता है तब उच्च या नीच गोत्र में से किसी एक का उदय अवश्य होता है, इस बात को बताने के लिए नामकर्म के बाद गोत्रकर्म का कथन किया है । गोत्रकर्म का जब उदय होता है तब उच्च कुल में उत्पन्न हुए व्यक्तियों को प्रायः दानान्तराय, लाभान्तराय आदि कर्म का क्षयोपशम होता है । क्योंकि राजा आदि अधिक दान देते हैं तो अधिक लाभ भी प्राप्त करते हैं, ऐसा प्रत्यक्ष दिखलाई देता है और नीच कुल में उत्पन्न हुओं को प्रायः दानान्तराय, लाभान्तराय आदि कर्म का उदय होता है । अन्त्यज आदि हीन कुलोत्पन्न व्यक्तियों में दानादि दिखता नहीं है । इस तरह उच्च-नीच गोत्र का उदय अन्तरायकर्म के उदय में हेतु है, इस अर्थ का बोध कराने के लिए गोत्र के पश्चात् अन्तरायकर्म का विधान किया है । 1 १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में भी अष्ट कर्मों के कथन की उपपत्ति प्रायः पूर्वोक्त जैसी है । परन्तु जानने योग्य बात यह है कि अन्तरायकर्म घाति होने पर भी सबसे अंत में कहने का आशय है कि वह कर्म घाति होने पर भी अघातिकर्म की तरह जीव के गुण का सर्वथा घात नहीं करता है तथा उसके उदय में अघातिकर्म निमित्त होते है और वीर्यगुण शक्ति रूप है और वह शक्ति रूप गुण जीव और अजीव दोनों में पाया जाता है, इसलिए उसके घात करने वाले अंतरायकर्म का सब कर्मों के अंत में निर्देश किया है । तत्सम्बन्धी पाठ इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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