________________
पंचसंग्रह : ३
गाथार्थ - ज्ञान और दर्शन का आवरण - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय ये कर्म की आठ मूल प्रकृतियां हैं ।
विशेषार्थ - संसारी जीव द्वारा प्रति समय कार्मणवर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण किया जा रहा है और ग्रहण की जा रही कर्म - - पुद्गलराशि में जीव की पारिणामिकपरिणति अध्यवसायशक्ति की विविधता से अनेक प्रकार के स्वभावों का निर्माण होता है । ये स्वभाव अदृश्य हैं और जिनके परिणमन की अनुभूति उनके कार्यों के प्रभाव को देखकर की जाती है । जैसे कि कर्मों के अनुभव के असंख्य प्रकार हैं तो उसका निर्माण करने वाले जीवस्वभाव भी असंख्य हैं । फिर भी संक्षेप में उन सभी का आठ भागों में वर्गीकरण करके गाथा में नाम बतलाये हैं कि
!
(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, । (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अंतराय ।
असंख्य कर्मप्रभावों का इन आठ नामों में वर्गीकरण करने का कारण यह है कि जिज्ञासुजन सरलता से कर्म सिद्धान्त को समझ सकें ।
ज्ञानावरण आदि उक्त आठ कर्मों के लक्षण इस प्रकार हैं
ज्ञानावरणकर्म- जीवादिक पदार्थ जिसके द्वारा जाने जाते हैं, उसे ज्ञान कहते हैं | अथवा जिसके द्वारा वस्तु का ज्ञान हो, यानी नाम, जाति, गुण, क्रिया आदि सहित विशेष बोध जिसके द्वारा हो, उसे ज्ञान और जिसके द्वारा आच्छादन हो - उसे आवरण कहते हैं। यानि मिथ्यात्वादि हेतुओं की प्रधानता वाले जीव व्यापार द्वारा ग्रहण की
१ आद्यो ज्ञानदर्शनावरण वेदनीय मोहनीययुप्कनामगोत्रान्तरायाः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
—तत्त्वार्थसूत्र ८।५
www.jainelibrary.org