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________________ ३. बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार बंधक-प्ररूपणा नामक द्वितीय अधिकार का प्रतिपादन करने के पश्चात् अब क्रमप्राप्त बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार का विवेचन प्रारम्भ करते हैं। पूर्व में बताये गये चौदह प्रकारों में वर्गीकृत जीवों के द्वारा बांधने योग्य क्या है ? बंध किसका करते हैं ? उसका विचार इस अधिकार में किया जायेगा। बंधयोग्य कर्म हैं। अतः कर्म का सांगोपांग विवेचन करने और सरलता से समझने के लिए उसके उत्तरभेदों का कथन प्रारम्भ करने के पूर्व मूलभेदों को बतलाते हैं। क्योंकि मूलभेदों का ज्ञान होने पर उत्तरभेदों को सरलता से जाना जा सकता है। कर्मों के मूलभेद इस प्रकार हैंकर्मों को मूलप्रकृतियां नाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणीयं । आउ य नाम गोयं तहंतरायं च पयडीओ ॥१॥ शब्दार्थ-नाणस्स-ज्ञान का, दसणस्स-दर्शन का, य-और, आवरणं-आवरण, वेयणीय-वेदनीय, मोहणीयं-मोहनीय, आउ-आयु, यऔर, नाम-नाम, गोयं-गोत्र, तह-तथा, अंतरायं-अन्तराय, च-और, पयडीओ-प्रकृतियां । तुलना कीजिये-- णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेयणीय मोहणीयं । आउग णामागोदं तहंतरायं च मूलाओ ॥ -दि. पंचसंग्रह २।२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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