________________
बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १
हुई कार्मणवर्गणाओं के विशिष्ट पुद्गलसमूह को आवरण कहते हैं। अतः ज्ञान को आच्छादित करने वाला पुद्गलसमूह ज्ञानावरण है।
दर्शनावरणकर्म-जिसके द्वारा पदार्थ देखा जाये, अवलोकन किया जाये, उसे दर्शन कहते हैं। यानी नाम, जाति आदि विशेषों के बिना वस्तु का जो सामान्य बोध हो, वह दर्शन है। अथवा वस्तु के सामान्य-विशेषात्मक रूप में से सामान्य धर्म को ग्रहण करने वाले बोध को दर्शन कहते हैं। इस दर्शन को आच्छादित करने वाले पुद्गलसमूह को दर्शनावरणकर्म कहते हैं ।
वेदनीयकर्म-संसारी जीवों के द्वारा सुख-दुःख रूप में जिसका अनुभव हो उसे वेदनीयकर्म कहते हैं। वैसे तो सभी कर्म अपना-अपना वेदन कराते हैं लेकिन वेदनीय शब्द पंकज आदि शब्दों की तरह रूढ़ अर्थ वाला होने से साता और असाता-सुख-दुःख रूप में जो अपना अनुभव कराता है वही वेदनीय कहलाता है, शेष कर्म वेदनीय नहीं कहलाते हैं। ___ मोहनीयकर्म---जो प्राणियों को मोहित करता है, सदसद् विवेकविकल करता है, रहित करता है, उसे मोहनीयकर्म कहते हैं। अथवा जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व-स्वरूपबोध और चारित्रस्वरूप गुण के लाभ में व्यवधान डालता है, जिससे कि मैं कौन हूँ, मेरा स्वरूप क्या है, पर क्या है और पर का स्वरूप क्या है, ऐसा भेदविज्ञान न होने दे, उसे मोहनीयकर्म कहते हैं। ___ आयुकर्म-जिसके वश चतुर्गति-समापन्न प्राणी भव से भवान्तर में जाते हैं, अथवा जिसके द्वारा अमुक-अमुक गति में अमुक काल तक
१ ज सामण्णं गहणं भावाणं व कटुमायारं ।
अविसेसिदूण अठे दसणमिवि भण्णए समए ।
-कर्मप्रकृति ४३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org