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________________ [ २५ ] अनुभव करता है। मोहनीय आत्मा को मोहित करता है, उसे यथार्थ का भान नहीं होने देता है और यदि भान हो भी जाये तो तदनुसार यथार्थ मार्ग पर चलने नहीं देता है। आयुकर्म अमुक समय तक जीव को किसी एक शरीर में रोके रहता है और छिन्न हो जाने पर शरीरान्तर को ग्रहण करने की ओर जीव उन्मुख होता है। नामकर्म के कारण शरीर, इन्द्रियों आदि की रचना होती है। गोत्र जीव को उच्चनीच कुल का कहलाने का कारण है और अन्तरायकर्म के कारण इच्छित वस्तु की प्राप्ति में विघ्न पड़ता है। फिर इन आठ कर्मों के उत्तर भेद किये हैं। सरलता से समझाने के लिए जिनकी संख्या एक सौ अड़तालीस या एक सौ अट्ठावन मानी है। इन आठ कर्मों और उनके उत्तर भेदों का विचार करना प्रस्तुत अधिकार का वर्ण्यविषय है। जैनदर्शन में वर्णित इन भेदों की तुलना के योग्य कर्म के कोई भेद दर्शनान्तरों में नहीं पाये जाते हैं । यद्यपि योगदर्शन में कर्म का विपाक तीन रूपों में बताया है-जन्म, आयु, और भोग, किन्तु अमुक कर्म जन्म, अमुक कर्म आयु और अमुक भोग के रूप में फल देता है, यह बात नहीं बताई है। यदि इनकी तुलना जैनदर्शन गत कर्मभेदों से करें तो आयुविपाक वाले कर्माशय की आयुकर्म से और जन्मविपाक वाले कर्माशय की नामकर्म से तुलना की जा सकती है। किन्तु वहाँ तो इतना ही संकेत है कि सभी कर्माशय मिलकर तीन रूप फल देते हैं, इत्यादि । इस विषय में विस्तृत विवेचन अपेक्षित है। किन्तु यहाँ तो संकेत मात्र करना पर्याप्त होने से विशेष लिखने का अवकाश नहीं है। योगदर्शन में जो कर्माशय का विपाक तीन रूपों में बताया है वे कर्म की विविध अवस्थायें हो सकती हैं। जैनदर्शन में इन अवस्थाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। वे अवस्थायें दस हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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