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[ २६ ] बन्ध, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, उपशम, निधत्ति, निकाचना, उदय और सत्ता । इन दस अवस्थाओं में आदि की आठ अवस्थाओं के निर्माण के हेतु जीव परिणाम हैं और अन्तिम दो में बद्ध कर्मपरमाणु हेतु हैं । इनका विस्तृत वर्णन आगे के अधिकारों में किया जा रहा है। जिससे स्पष्ट और विशद जानकारी हो सकेगी। इसके अतिरिक्त जैनदर्शन में कर्म का स्वामी, कर्म की स्थिति, कब कौन प्रकृति बंधती है, किसका उदय होता है, किसकी सत्ता रहती है किसका क्षय होता है, आदि कर्म विषयक प्रत्येक अंग का वर्णन किया है। ____ अन्य दर्शनों में कर्म विषयक चर्चा का संकेत मात्र होने का कारण यह है कि उन्होंने उसको कोई स्वतंत्र विषय नहीं समझा, जिससे उसकी चर्चा के लिये साहित्य निर्माण की ओर ध्यान नहीं दिया। लेकिन जैनदर्शन अध्यात्मवादी दर्शन है । आत्मा के विकास, आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करना उसका लक्ष्य है और आत्मा के विकास और शुद्ध स्वरूप का वर्णन तभी किया जा सकता है जबकि अवरोधक कारणों का ज्ञान हो जाये और अवरोधक कारण हैं कर्म । इसीलिये जैनदर्शन में कर्म का विस्तार से वर्णन किया है। जैनसाहित्य में कर्म विषयक साहित्य का स्वतन्त्र और महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
इस प्रकार से कर्म सम्बन्धी कतिपय बिन्दुओं पर प्रकाश डालने के अनन्तर अब अधिकार के वर्ण्य विषय के लिये संक्षेप में प्रकाश डालते हैं। विषयप्रवेश
अधिकार को प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम कर्मों की मूल प्रकृतियों का और उसके बाद प्रत्येक की उत्तर प्रकृतियों की संख्या का निर्देश किया है। तत्पश्चात् प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रकृतियों के नाम
और लक्षण बतलाये हैं। यथाप्रसंग सम्बन्धित प्रश्नों का समाधान भी किया है । यह सब वर्णन आदि की तेरह गाथाओं में है।
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