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________________ [ २४] का आस्रव तो हो सकता है किन्तु कषाय के अभाव में वे वहाँ ठहर नहीं सकेंगे। जिसको इस प्रकार समझा जा सकता है-योग वायुस्थानीय है, कषाय गोंद या अन्य कोई चिपकाने वाला पदार्थ है और कर्मपरमाणु धूलिरूप हैं तथा जीव मकान रूप है । अतएव यदि वायु होगी तो मकान में धूलिकण अधिक से अधिक प्रवेश करेंगे और यदि मकान में चिपकाने वाला पदार्थ लगा है तो वे धूलिकण वहाँ आकर चिपक जायेंगे । यदि वायु और चिपकाने वाले पदार्थ की तीव्रता-प्रचुरता है तो धूलिकण अधिक आकर अधिक मात्रा में और अधिक समय तक चिपकेगे और मंदता है तो उसी परिमाण में उनका रूप होगा । यही बात योग और कषाय के बारे में जानना चाहिये। योगशक्ति जिस स्तर की होगी, आकृष्ट होने वाले कर्म परमाणओं का परिमाण भी उसी के अनुसार होगा और इसी तरह कषाय यदि तीव्र होती है तो कर्मपरमाणु आत्मा के साथ अधिक समय तक बंधे रहते हैं और फल भी तीव्र ही देते हैं । इसके विपरीत अल्प योग और कषाय के कारण अल्प कर्मपरमाणु बंधते हैं और फल भी मंद देते हैं। सारांश यह हुआ कि योग और कषाय जीव के पास कर्म परमाणुओं के लाने और फल देने के कारण हैं तथा योग के द्वारा कर्म परमाणुओं का स्वभाव निर्मित होता है तथा प्रदेशसंचय होता है तथा कषाय के द्वारा आत्मा के साथ कर्म परमाणुओं के बंधे रहने की कालमर्यादा और फलदान शक्ति का निर्धारण होता है । इस सबको शास्त्रीय शब्दों में प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध कहते हैं। स्वभाव को प्रकृति, बंधने वाले कर्म परमाणुओं की संख्या को प्रदेश, काल की मर्यादा को स्थिति और फलदानशक्ति को अनुभाग कहते हैं। इन बंधों में से प्रकृतिबंध के आठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय । ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित-घातता है। दर्शनावरण आत्मा के दर्शनगुण का घात करता है । वेदनीय सांसारिक सुख-दुःख का वेदन: Jain Education International For For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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