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[२३ ] और अपरपर्यायवेदनीय । अनियत के दो भेद हैं -विपाककाल अनियत और अनियत विपाक । दृष्टधर्मवेदनीय के दो भेद हैं.-सहसावेदनीय और असहसावेदनीय । शेष भेदों के भी चार भेद हैं -विपाककालनियत विपाक-अनियत, विधाकनियत विपाक-कालअनियत, नियत-विपाक, नियतवेदनीय और अनियत-विपाक अनियतवेदनीय ।
इस प्रकार से दर्शनान्तरों में कर्म के भेद किये गये हैं। बौद्धदर्शन के भेदों में फलदान की दृष्टि से भी कर्म के कुछ भेदों का संकेत किया है. लेकिन अपेक्षित स्पष्टता का अभाव है। बौद्ध के अतिरिक्त अन्य वैदिक दर्शनों में साधारणतया फलदान की दृष्टि से कर्म के संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण ये तीन भेद किये जाते हैं। किसी के द्वारा इस क्षण किया गया हो या पूर्व जन्म में, वह सब संचित कहा जाता है । संचित का अपर नाम अदृष्ट और मीमांसकों के अनुसार अपूर्व है। संचित में से जितने कर्मों के फलों को भोगना पहले शुरू होता है, उतने को हो प्रारब्ध कहते हैं । क्रियमाण का अर्थ है जो कर्म अभी हो रहा है। परन्तु यह प्रारब्ध का ही परिणाम होने से लोकमान्य तिलक ने स्वीकार नहीं किया है।
अब जैनदर्शन की दृष्टि से कर्म के भेदों आदि के लिए संक्षेप में विचार करते हैं।
जैसा कि प्रारम्भ में बताया जा चुका है कि जैनदर्शन में कम से आशय संसारी जीव की क्रिया के साथ-साथ उसको ओर आकृष्ट होने वाले कार्मणवर्गणा रूप भौतिक पदार्थ से है। वे कार्मणवर्गणा के परमाण जीव की प्रत्येक क्रिया के समय आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं। इन को आकर्षित करने में कारण है जीव की योगशक्ति । इस योगशक्ति द्वारा आकृष्ट हुए कर्मपरमाणु जीव के द्वारा राग-द्वेष, मोह आदि भावों का, जिन्हें जैनदर्शन में कषाय कहते हैं, निमित पाकर आत्मा से बंध जाते हैं। इस तरह कर्मपरमाणुओं के आत्मा तक लाने का कार्य योगशक्ति और बन्ध कराने का कार्य कषाय-रागद्वेष रूप भाव करते हैं। यदि कषाय नष्ट हो जाये तो योग के रहने तक कर्मपरमाणुओं
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