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________________ [ २२ ] गुणों के साक्षात रूप में घातक हो सकते हैं और कौन उनके सहयोगी होकर जीव को सांसारिक अवस्थागत शरीर, इन्द्रियों के निर्माण में कारण हो सकते हैं, इत्यादि रूप से सांगोपांग वर्णन जैन कर्मसिद्धान्त में किया गया है । लेकिन ऐसा समग्रता का प्रदर्शक वर्णन दर्शनान्तरों के ग्रन्थों में देखने को नहीं मिलता है। जो निम्नांकित वर्णन से स्पष्ट हो जाता है। अच्छा कर्म और बुरा कर्म इस प्रकार कर्म के दो भेद तो सभी जानते हैं। लोकव्यवहार में कर्म के इसी रूप में भेद समझे जाते हैं और इन्हें ही विभिन्न शास्त्रकारों ने शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल, शुक्ल-कृष्ण, श्रेष्ठ-कनिष्ठ आदि नामों से कहा है । ये भेद भी किसी विशेष अर्थ को स्पष्ट करते हों, ऐसे नहीं हैं, मात्र एक लोकरूढ़ि की पूर्ति करते हैं। इसके सिवाय भी विभिन्न दर्शनकारों ने विभिन्न दृष्टियों से कर्म के भेद किये हैं। जैसे कि गीता में सात्विक, राजस और तामस भेद पाये जाते हैं, जो पूर्वोक्त भेदों में ही गभित हो जाते हैं । वेदान्तदर्शन में कर्म के प्रारब्ध कार्य और अनारब्ध कार्य ये दो भेद किये हैं। योगदर्शन में कर्माशय के दो भेद किये हैं-दृष्टजन्मवेदनीय, अदृष्ट-जन्मवेदनीय । जिस जन्म में कर्म का संचय किया है, उसी जन्म में यदि वह फल देता है तो उसे दृष्ट-जन्मवेदनीय कहते हैं और यदि दूसरे जन्म में फल देता है तो उसे अदृष्टजन्मवेदनीय कहते हैं। फिर दोनों में से प्रत्येक के दो भेद और किये हैं-नियत विपाक, अनियत विपाक । बौद्धदर्शन में कर्म के भेद कई प्रकार से गिनाये हैं । जैसे कि सुखवेदनीय, दुःखवेदनीय और न दुःखसुखवेदनीय तथा कुशल; अकुशल और अव्याकृत । किन्तु दोनों के आशय में अन्तर नहीं है, एक ही है-जो सुख का अनुभव कराये, जो दुःख का अनुभव कराये और जो न दुःख का और न सुख का अनुभव कराये । प्रथम तीन भेदों के भी दो भेद हैं- एक नियत और दूसरा अनियत । नियत के तीन भेद हैं-दृष्टधर्मवेदनीय, उपपद्यवेदयोन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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