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________________ [ २१ ] जीव परिणामहेदु कम्मत्त पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्त तहेव जीवोऽवि परिणमदि । -समयप्राभृत गा. ८६ यह प्रवाह जीव के दो प्रकारों में से अभव्य की अपेक्षा अनादिअनन्त है और भव्य जीवों की अपेक्षा अनादि-सान्त है। उपर्युक्त कथन से ऐसा कहा जा सकता है कि कर्म के द्रव्य और भाव ये दो भेद जैनदर्शन में माने गये हैं। लेकिन ये भेद नहीं हैं, दो प्रकार हैं। इन दो प्रकारों को कहने का कारण यह है कि जैसे जीव और उसके भावों का मौलिक अस्तित्व है उसी प्रकार कर्म का भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, वह एक सद्भुत पदार्थ है। वास्तव में तो शास्त्रकारों ने कर्म के भेद दो दृष्टियों से किये हैं-विपाक की दृष्टि से और विपाककाल की दृष्टि से। कर्म का विपाक-फलवेदन किसकिस रूप में होता है और कब होता है, प्रायः इन्हीं की मुख्यता को लेकर भेद किये गये हैं। जैसा कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्म के नामों से स्पष्ट हो जाता है। इन नामों को सुनते ही यह समझ में आ जाता है कि कर्म जीव के ज्ञान आदि गुणों को आच्छादित करने रूप में अपना फल प्रदर्शित करते हैं। यद्यपि कर्म के भेदों का साधारणतया उल्लेख तो प्रायः प्रत्येक आत्मवादी दर्शन में किया गया है। किन्तु जैनेतर दर्शनों में से योगदर्शन और बौद्धदर्शन में ही कर्माशय और उसके विपाक का कुछ वर्णन किया गया है तथा विपाक एवं विपाककाल की दृष्टि से कुछ भेद भी गिनाये हैं। परन्तु जैनदर्शनगत सर्वांगीण वर्णन की तुलना में वह वर्णन नगण्य-न कुछ जैसा है। क्योंकि जैनदर्शन में कर्म और उसके भेदों की परिभाषाएँ स्थिर की। कार्य-कारण की दृष्टि से कर्मतत्त्व का विविध प्रकार से वर्गीकरण किया, कर्म की फलदान शक्तियों का विवेचन किया। विपाकों की काल मर्यादाओं का विचार किया, आत्मपरिणामों के कारण उनमें क्या-क्या रूपान्तरण आदि हो सकते हैं, कर्मों के पारस्परिक सम्बन्धों का विचार किया, कौन कर्मभेद जीव Jain Education International For Private & Personal www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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