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पंचसंग्रह : ३
समय में अपने-अपने रूप में अनुभव होता है । इसीलिये ये सभी प्रकृतियां उदयवती कहलाती हैं ।
यद्यपि सता-असातावेदनीय और स्त्रीवेद, नपुंसकवेद में अनुदयवतित्व भी सम्भव है । क्योंकि चौदहवे गुणस्थान के अन्त समय में एक जीव के साता - असाता में एक का ही उदय होता है । इस कारण जिसका उदय हो वह उदयवती और जिसका उदय न हो वह अनुदयवती है। इसी तरह जिस वेद के उदय से श्रेणि आरम्भ की हो, वह वेदप्रकृति उदयवती और शेष अनुदयवती संज्ञक कहलाती है । इस प्रकार इन प्रकृतियों में अनुदयवतित्व भी सम्भव है । परन्तु मुख्य गुण के आश्रय से उस प्रकृति का नामकरण होता है । एक जीव की अपेक्षा एक प्रकृति उदयवती और दूसरी अनुदयवती संज्ञक हो सकती है, परन्तु भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा ये चारों प्रकृतियां उदयवती हैं । इस दृष्टि से पूर्व पुरुषों ने साता-असातावेदनीय और नपुंसकवेद, स्त्रीवेद को उदयवती प्रकृति माना है ।
इस प्रकार से ये चौंतीस प्रकृतियां उदयवती जानना चाहिये । इन उदयवती प्रकृतियों से शेष रही एक सौ चौदह प्रकृतियां अनुदयवती हैं। अनुदयवतो मानने के कारण सहित उनके नाम इस प्रकार हैं
चरमोदय संज्ञा वाली मनुष्यगति आदि नामकर्म की नो तथा नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय रूप जातिचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप और उद्योत कुल मिलाकर इन बाईस प्रकृतियों के सिवाय शेष रही नामकर्म की इकहत्तर और नीचगोत्र कुल मिलाकर बहत्तर प्रकृतियों के दलिकों को उदय-प्राप्त स्वजातीय अन्य प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित करके अयोगिकेवली चरम समय में पर प्रकृति के व्यपदेश से अनुभव करते हैं । इसी तरह निद्रा और प्रचला को क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव अनुभव करता है तथा मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय को
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