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________________ बंधव्य प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, ६७ १७६ होता है, उस समय अपने रूप में अनुभव किये जायें वे प्रकृतियां उदयवती हैं। उक्त लक्षणों के अनुसार अब पहले उदयवती प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, आयुचतुष्क, दर्शनावरणचतुष्क, साता-असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, नपुसकवेद तथा मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति और तीर्थंकरनाम रूप अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय तक उदय . रहने वाली नामनवक प्रकृतियां, उच्चगोत्र, वेदकसम्यक्त्व और संज्वलन लोभ, कुल मिलाकर ये चौंतीस प्रकृतियां उदयवती हैं । ___इनको उदयवती मानने का कारण यह है कि इनके उदय और सत्ता का एक समय में ही क्षय होता है। जो इस प्रकार समझना चाहिये मतिज्ञानावरण आदि ज्ञानावरणपंचक, दानान्तराय आदि अन्तरायपंचक और चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का बारहवें क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में जब उनकी सत्ता का नाश होता है उस समय अपने रूप में अनुभव किये जाने से उदयवती हैं। इसी प्रकार चरमोदयवती नामकर्म की मनुष्यगति आदि नौ प्रकृतियां, साता-असातावेदनीय और उच्चगोत्र कुल मिलाकर बारह प्रकृतियों का अयोगिके वलीगुणस्थान के अन्तसमय में, संज्वलन लोभ का क्षपकश्रेणि में सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के अन्तसमय में, वेदकसम्यक्त्व (सम्यक्त्वमोहनीय) का क्षायिकसम्यक्त्व का उपार्जन करते समय अपने क्षय के चरम समय में, स्त्रीवेद और नपुसकवेद का उसउस वेद के उदय से श्रोणि आरम्भ करने वाले को नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के संख्यात भाग बीतने के बाद उस-उस वेद के उदय के अन्तसमय में, चारों आयुओं का अपने-अपने भव के चरम Jain Education International For Private & Personal Use Only. www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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