SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, ६७ १८१ सप्तक के क्षयकाल में सम्यक्त्व में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित करके परव्यपदेश से अनुभव करता है, अनन्तानुबंधिकषाय के क्षयकाल में उनके दलिकों को बध्यमान चारित्रमोहनीय में गुणसंक्रम द्वारा संक्रमित करके और उदयावलिकागत दलिकों को स्तिबुकसंक्रम द्वारा उदयवती प्रकृतियों में संक्रमित करके परव्यपदेश से अनुभव करता है तथा स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप, उद्योत, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, नरकद्विक और तिर्यंचद्विक नामकर्म की इन तेरह प्रकृतियों को बध्यमान यशःकीर्तिनाम में गुणसंक्रम द्वारा संक्रमित करके और उदयावलिका के दलिकों को उदयप्राप्त नामकर्म की प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित करके पररूप से अनुभव करता है तथा स्त्यानद्धित्रिक को भी पहले तो बध्यमान दर्शनावरणचतुष्क में गुणसंक्रम द्वारा संक्रमित करता है और उसके बाद उदया वलिका के दलिकों को स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित करके अन्य व्यपदेश से अनुभव करता है । इसी प्रकार मध्यम अष्टकषाय, हास्यषट्क, पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध, मान, माया इन प्रकृतियों को यथायोग्य रीति से पुरुषवेदादि उत्तरोत्तर प्रकृतियों में प्रक्षेप करके पररूप से अनुभव करता है । इसीलिये ये एक सौ चौदह प्रकृतियां अनुदयवती संज्ञा वाली हैं । क्योंकि इन प्रकृतियों के दलिक चरम समय में अन्यत्र संक्रमित किये जाने से इनके रसोदय का अभाव है । इस प्रकार से इकतीस वर्गों में बंधव्य प्रकृतियों के वर्गीकरण को जानना चाहिये । किस वर्ग में कौन-कौन-सी प्रकृति का समावेश है, सुगमता से जानने के लिए प्रारूप परिशिष्ट में देखिये । इस तरह से बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार में बंधव्य प्रकृतियों का सामान्य और विशेष की अपेक्षा समग्र कथन है । बिना हेतु - निमित्त के बंधव्य का बंध नहीं होता है । अतः बंध के हेतुओं को जानना आवश्यक होने से अब क्रमप्राप्त बंधहेतु नामक अर्थाधिकार का विस्तार से व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं । O Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy