________________
बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४
१७३
का बंध करे और उसकी बंधावलिका बीतने के बाद मनुष्यगति का बंध प्रारम्भ करे तो उसमें उदयावलिका से ऊपर के नरकगति के दलिकों को संक्रमित करे तब मनुष्यगति में उत्कृष्ट स्थिति का लाभ होता है । इसी तरह सातावेदनीय आदि प्रकृतियों के लिए भी समझना चाहिये।
संक्रम द्वारा उत्कृष्ट स्थितिसत्ता होने का कारण यह है कि शुभ प्रकृतियों की बंधमुखेन स्थिति अल्प और अशुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट बंधती है। अतएव अशुभ प्रकृतियों के दलिकों के संक्रम द्वारा ही शुभ प्रकृतियों में उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं और मनुष्यगति आदि शुभ प्रकृतियां हैं। जिससे ये मनुष्यगति आदि तीस प्रकृतियां उदयसंक्रमोत्कृष्टा मानी गई हैं।
इस प्रकार से उदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों को बतलाने के बाद अब अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियां बतलाते हैं । अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियां
मणुयाणुपुस्विमीसग आहारगदेवजुगलविगलाणि । सुहुमाइतिगं तित्थं अणुदयसंकमणउक्कोसा ॥६४॥
शब्दार्थ-मणुयाणुपुषि-मनुष्यानुपूर्वी, मीसग-मिश्रमोहनीय, आहारगदेव जुगल-आहारकद्विक और देव द्विक, विगलाणि-विकलत्रिक, सुहुमाइतिगं-सूक्ष्मादित्रिक, तित्यं-तीर्थकरनाम, अणुदयसंकमणउक्कोसा-अनुदय. संक्रमोत्कृष्टा।
गाथार्थ-मनुष्यानुपूर्वी, मिश्रमोहनीय, आहारकद्विक, देवद्विक, विकलत्रिक, सूक्ष्मादित्रिक और तीर्थंकरनाम ये अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ-गाथा में अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा तेरह प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं । जो इस प्रकार हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org