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________________ १७२ पंचसंग्रह : ३ ऋषभनाराचादि पांच संहनन, सनचतुरस्र आदि पांच संस्थान और उच्चगोत्र, ये उदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ-गाथा में उदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं-मनुष्यगति, सातावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और यश:कीर्तिरूप स्थिरषट्क तथा हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा रूप हास्यषट्क, वेदत्रिक-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद, प्रशस्तविहायोगति, वज्रऋषभनाराचसंहनन, ऋषभनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन और कीलिकासंहनन नामक पांच संहनन, समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन और कुब्ज नामक पांच संस्थान और उच्चगोत्र, ये तीस प्रकृतियां उदयसंक्रमोत्कृष्टा हैं । इनको उदयसंक्रमोत्कृष्टा मानने के कारण का स्पष्टीकरण इस प्रकार है___इन प्रकृतियों का जब उदय होता है, तब इनकी विपक्षभूत सजातीय नरकगति, असातावेदनीय और मिथ्यात्वमोहनीय आदि कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को बांधकर उनकी बंधावलिका बीतने के बाद उदय-प्राप्त हुई उपयुक्त मनुष्यगति आदि प्रकृतियों का बंध प्रारम्भ करता है। तब उदय-प्राप्त और बांधी जा रही इन मनष्यगति आदि में नरकगति आदि विपक्षभूत प्रकृतियों के दलिकों को संक्रमित करता है । अर्थात् संक्रम से उत्कृष्ट स्थितिलाभ होता है । यहाँ मनुष्यगति आदि का बंध हो- ऐसा जो कहा है, उसका कारण यह है कि बंधावलिका पूर्ण न हो तब तक उसमें कोई भी करण लागू नहीं होता, इसलिए बंधावलिका बीतना चाहिए और जिसमें संक्रम होना है, उसका बंध प्रारम्भ हो तभी संक्रम होता है, क्योंकि बध्यमान प्रकृति ही पतद्ग्रह होती है और पतद्ग्रह प्रकृति के बिना कोई भी प्रकृति संक्रमित नहीं हो सकती है । इसीलिए मनुष्यगति आदि का बंध होना चाहिए ऐसा उल्लेख किया है। उदाहरणार्थ-मनुष्यगति का जब उदय हो तब नरकगति की बीस कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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