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________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ १७१ इस प्रकार से १ उदयबंधोत्कृष्टा, २ अनुदयबंधोत्कृष्टा, ३ उदयसंक्रमोत्कृष्टा, ४ अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा के भेद से प्रकृतियों के चार वर्ग हैं। इन चारों के लक्षण बतलाने के बाद अब अनानुपूर्वी के क्रम से सर्वप्रथम उदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों को बतलाते हैं। उदयसंक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियां मणुगइ सायं सम्मं थिरहासाइछ वेयसुभखगई। रिसहचउरंसगाईपणुच्च उदसंकमुक्कोसो ॥६३।। शब्दार्थ-मणुगइ - मनुष्यगति, सायं-सातावेदनीय, सम्म-सम्यक्त्वमोहनीय, थिरहासाइछ-स्थिरादि और हास्यादि षट्क, वेय-तीन वेद, सुभखगई-प्रशस्तविहायो गति, रिसहचउरंसगाई-वज्रऋषभनाराचसंहननादि, समचतुरस्रसंस्थानादि, पण--पांच, उच्च-उच्चगोत्र, उदसंकमुक्कोसोउदयसंक्रमोत्कृष्टा । गाथार्थ- मनुष्यगति, सातावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, स्थिरादिषट्क और हास्यादिषट्क, तीन वेद, प्रशस्तविहायोगति, वज्र १ शास्त्रों में १ पूर्वानुपूर्वी, २ पश्चानुपूर्वी और ३ अनानुपूर्वी, इन तीनों प्रकारों-प्रणालियों से पदार्थों का वर्णन किया गया है। जिस पदार्थ का जिस क्रम से निरूपण किया गया हो, उसी क्रम से एक-एक पदार्थ के स्वरूप को बतलाने को पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। जिस पदार्थ का जिस क्रम से निरूपण किया गया हो, उससे उल्टे-विपरीत क्रम से यानी अन्तिम से आदि तक एक एक पदार्थ का स्वरूप बतलाना पश्चानुपूर्वी है और जिन पदार्थों का जिस क्रम से निरूपण किया गया हो, उनका ऊपर बताये गये दोनों क्रमों के बिना इच्छानुरूप क्रम से स्वरूप बतलाने को अनानुपूर्वी कहते हैं। यहाँ मूल गाथा में बताये गये चारों पदार्थों में से पहले तीसरे का, उसके बाद चौथे, दूसरे और पहले का वर्णन किया गया है। इसीलिए यहाँ अनानुपूर्वी क्रम का संकेत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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