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पंचसंग्रह : ३
मनुष्यानुपूर्वी, मिश्रमोहनीय, आहारकशरीर, आहारक- अंगोपांग, देवगति, देवानुपूर्वी, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और तीर्थंकरनाम । इनको अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा मानने का स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है
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इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अपने-अपने बंध के द्वारा प्राप्त नहीं होती है । जिसका कारण यह है कि इनकी स्थिति अपने मूलकर्म जितनी बंध के समय बंधती ही नहीं है किन्तु स्वजातीय प्रतिपक्ष प्रकृतियों के संक्रम द्वारा ही उत्कृष्ट स्थिति होती है । वह इस प्रकार समझना चाहिए कि
जब उक्त प्रकृतियों की प्रतिपक्षी प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध करके उनकी बंधावलिका जिस समय पूर्ण होती है, उसके बाद के समय में उपर्युक्त प्रकृतियों का बंध प्रारम्भ होता है । बंध रही प्रकृतियों में पूर्वबद्ध इनकी प्रतिपक्षी नरकानुपूर्वी आदि के दलिक संक्रमित होते हैं । अर्थात् संक्रम द्वारा इनकी उत्कृष्ट स्थिति होती है, किन्तु वह भी तब, जब इनका उदय न हो। इसका कारण यह है कि जब उपर्युक्त प्रकृतियों का उदय होता है तब इनकी विपक्षी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध ही नहीं होता है । यथा - मनुष्यानुपूर्वी का उदय विग्रहगति में होता है, विकलत्रिक और सूक्ष्मादित्रिक का उदय विक लेन्द्रियों और सूक्ष्मादि जीवों में होता है, आहारकशरीर और आहारक अंगोपांग का उदय आहारकशरीरी के होता है, मिश्रमोहनीय का उदय तोगरे मिश्रगुणस्थान में और तीर्थंकरनाम का उदय तेरहवें सयोगिकेवलीगुणस्थान में होता है, किन्तु वहाँ उन उनकी विपक्षी प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के योग्य अध्यवसाय ही नहीं होते हैं और देवद्विक – देवगति, देवानुपूर्वी का उदय देवगति में होता है, परन्तु वहाँ इन दोनों प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । इन्हीं कारणों से मनुष्यानुपूर्वी आदि प्रकृतियां अनुदयबंधोत्कृष्टा कहलाती हैं ।
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