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________________ १६४ पंचसंग्रह : ३ संज्वलन लोभ का बंधविच्छेद नौवे अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के चरम समय में और उदयविच्छेद दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में होता है। इस प्रकार से ये छियासी प्रकृतियां क्रम से बंध और उदय में विच्छिन्न होने से क्रमव्यवच्छिद्यमान बंधोदया कहलाती हैं। पूर्वोक्त छब्बीस और छियासी प्रकृतियों से शेष रही अयशःकीर्ति, देवत्रिक, वैक्रियद्विक और आहारकद्विक इन आठ प्रकृतियों का पहले उदयविच्छेद और बाद में बंधविच्छेद होने से ये उत्क्रमव्यवच्छिद्यमान बंधोदया कहलाती हैं । सम्बन्धित स्पष्टीकरण इस प्रकार है अयशःकीति का प्रमत्तसंयतगुणस्थान में, देवायु का अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में, देवद्विक और वैक्रियद्विक का अपूर्वकरणगुणस्थान में बंधविच्छेद होता है, लेकिन इन छहों प्रकृतियों का उदयविच्छेद चौथे गुणस्थान में होता है तथा आहारकद्विक का अपूर्वकरणगुणस्थान में बंधविच्छेद और अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में उदयविच्छेद होता है। १ आचार्य मलयगिरिसूरि ने क्रमव्यवच्छिद्यमान बंधोदया प्रकृतियों के जो छियासी (८६) नाम बतलाये हैं। उनमें से कुछ नाम स्वोपज्ञवृति में किये गये नामोल्लेख से भिन्न हैं । स्वोपज्ञवृत्ति में वे नाम इस प्रकार हैं ज्ञानावरणपंचक, अन्तराययंचक, दर्शनावरणनवक, नामध्र वोदया द्वादशक (निर्माण, स्थिर, अस्थिर, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ), सुस्वर, दुःस्वर, विहायोगति द्विक, औदारिकद्विक, प्रत्येक, वज्रऋषभनाराचसंहनन, उपघातत्रिक, मनुष्यायु, वेदनीयद्विक गोत्रद्विक, अयोगिनवक (मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, बस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीति, तीर्थकर), स्थावर, नरकत्रिक, जाति चतुष्क, अन्तिम संहनन, नपुसकवेद, दुर्भग, उद्योत, अनादेय, तिर्यंचत्रिक, स्त्रीवेद, मध्यम संहनन चतुष्क, संस्थानषट्क, अरति, शोक, संज्वलन लोभ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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